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द्वितीय खंड। [३३५ नही परिणमन करे ऐसा पुरुषार्थ करके साम्यभावमें रहना योग्य है। श्री नेमिचंद्रसिद्धांतचक्रवर्तीने भी द्रव्यसंग्रहमें जीवका कर्ता'पना इस तरह बताया है
पुग्गलकम्मादीण क्त्ता वबहारदो दु णिच्चयदो । चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाण ॥
भावार्थ-अह आत्मा व्यवहारनयसे ज्ञानावरणीय आदि पौद्गलिक कर्मोका कर्ता है परन्तु अशुद्ध निश्चयसे रागादिभावोंका कर्ता है और शुद्ध निश्चयनयसे यह शुद्ध चेतनभावोंका कर्ता है । तात्पर्य यही है कि शुद्ध भावोंका ही होना जीवका हित है ।। ९५ ॥
उत्थानिका-आगे इस प्रश्नके होनेपर कि आत्माके किस तरह द्रव्य कर्मका परिणमनरूपी कर्म नहीं होता है, आचार्य समाधान करते है:गेहदि णेव ण मुश्चदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि । जीवो पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु ॥ १६ ॥ गृह्णति नैव न मुञ्चति करोति न हि पुदलानि कर्माणि । जीवः पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि सर्वकालेषु ॥ ९६ ।।
अन्वय सहित सामान्यार्थ -(जीवों) यह जीव (पोग्गलमज्ने) पुद्गलोंके मध्यमें (सव्वकालेसु) सर्व कालोमें (वट्टण्णवि) रहता हुआ भी (पोग्गलाणि कम्माणि) पुद्गलमई कर्मों को (णेय गेहदि) न तो ग्रहण करता है (ण मुंचदि) न छोडता है (ण हि करेदि) और न करता है।
विशेषार्थ-यह नीव सर्व कालोमें दूध पानीकी तरह पुद्गलके बीचमे वर्तमान है तो भी जैसे निर्विकल्प समाधिमें रत परम मुनि