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________________ २६० ] श्रीप्रवचनसारटीका । Buda ~ है और द्रव्यार्थिक दृष्टिके द्वारा परिणमन करता हुआ पर्यायार्थिकदृष्टि से जो जीवन मरण, लाभ अलाभ, शत्रु मित्र, निंदा प्रशंसा आदिमें विकल्प उठकर किसी में राग व किसीमें द्वेष होता था सो नहीं होकर समताभावमें मग्न होजाता है और केवल मात्र ज्ञायकस्वभावरूप अपने ही शुद्ध आत्माके भीतर लय होजाता है वह शुद्धोपयोग है। इस शुद्धोपयोगकी दशामे ध्याताके अंतरंग में ध्याता, ध्येय, ध्यानके विकल्प नहीं होते । जो ध्याता है वही ध्येय है, वही ध्यान है । आत्मामे एकाय परिणतिको ही शुद्धोपयोग कहते हैं। यही स्वात्मानुभवरूप दशा है, यही ध्यानकी अग्नि है जो कर्मोको नाश करती है, यही रत्नत्रयकी एकतारूप निश्चय मोक्षमार्ग है, यही साधन है जिससे मोक्षकी सिद्धि होती है। निर्जराका यही मुख्य उपाय है | इस शुद्धोपयोगमे अपूर्व आनन्दका स्वाद आता है जिससे ध्याता परमसुखसमुद्रमे मग्न होकर एक शुद्ध अद्वैत भावरूप हो जाता है, इस शुद्धोपयोगकी दशा श्री नागसेनमुनिने तत्त्वानुशासनमे इसतरह कही है तदेवानुभवश्चायमेवायं परिमृच्छति । तथात्माधीनमानदमेति वाचामगोचर ॥ १७० ॥ यथा निर्वातदेशस्थः प्रदीपो न प्रकंपते । तथा स्वरूपनिष्ठेऽय योगी नैकाग्र्यमुज्झति ॥ १७१ ॥ तदा च परमेकाग्र्याद्वहिरर्थेषु सत्स्वपि । अन्यन्न किंचनाभाति स्वमेत्रात्मनि पश्यतः ॥ १७२ ॥ पश्यन्नात्मानमैकाग्र्यात्क्षपयत्यार्जितान्मलान् । निरस्ताहमभीभावः संत्रणेत्यप्यनागतान् ॥ १७८ ॥
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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