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________________ द्वितीय खंड। [२५६ उत्थानिका-आगे शुभ अशुभ उपयोगसे रहित शुद्ध उपयोगको वर्णन करते है असुहोवोगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्मि । होजं ममत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए ॥ ७० ॥ अशुभोपयोगरहितः शुभोपयुक्तो न अन्यद्गम्ये । भवन्मध्यस्योऽह ज्ञानात्मकमात्मकं ध्यायामि ॥ ७० ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ:-(अहं) मैं (असुहोवओगरहिंदी) अशुमोपयोगसे रहित होता हू. (सुहोवजुत्तो ण) शुभोपयोगमें भी परिणमन नहीं करता हूं तथा ( अण्णदवियम्मि ) निन परमात्मा सिवाय अन्य द्रव्यमे तथा जीवन मरण, लाभ, अलाभ, सुख दुख, शत्रु मित्र, निंदा प्रशंसा आदिमें (मज्झत्थो होनं ) मध्यस्थ होता हुआ (गाणप्पगम् ) ज्ञानस्वरूप (अप्पगं) आत्माको (झाए) ध्याताहूं। विशेषार्थ-अशुभोपयोग तथा शुभोपयोगमें परिणमन न करके वीतरागी होकर ज्ञानसे निर्मित जानखरूप तथा उस केवलज्ञानमें अंतर्भूत अनंतगुणमई अपनी आत्माको शुद्ध ध्यानके विरोधी सर्व मनोरथरूप चिंताजालको त्यागकर ध्याताहू । यह शुद्धोपयोगका लक्षण जानना चाहिये । ___ भावार्थ-इस गाथामें शुद्धोपयोगका स्वरूप जो वास्तमें अनुभवगम्य है, बचतगोचर नहीं है, उसका समेत खरूर कयन किया है। नहा ध्याताका उपयोग मिथ्यामागे, व विषय कपायरूर अशुभोरयोगसे बिलकुल दूर रहकर भक्ति, पूजा, दान, परोपकार आदि मद कायसे होनेवाले शुभोपयोगोंसे भी छुटा हुआ होजा
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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