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________________ २५८ ] थ्रोप्रवचनसारटोका ! चधानीसे हिंसारूप गृहस्थीके आरंभकी क्रिया, चित्तकी मलीनता, इंद्रियोंके विषयभोगोंमें लोलुपता, अन्य प्राणियोंको दुःख देनेवाली क्रिया व दूसरोंकी निन्दा इत्यादि प्रवृत्ति पापका आश्रव करती है। श्री कुलभद्र आचार्यकृत सारसमुच्चयमें अशुभोपयोगके भावोंको इस तरह बताया है कषायविषयश्चित्तं मिध्यात्त्वेन च संयुतम् । संसारवीजता याति विमुक्तं मोक्षवीजताम् । ३३ ॥ भावार्थ - जो मन विषय कषायोंसे व मिथ्यादर्शनसे पीड़ित और इनहीसे रहित है वह संसारके वीजपनेको प्राप्त होता है मोक्षका बीज होता है । अज्ञानावृत्तचित्ताना रागद्वेषरतात्मनाम् । आरंभेषु प्रवृत्ताना हितं तस्य न भीतवत् । २५३॥ भावार्थ - जिनका चित्त अज्ञानमें वर्तन करता है व जो राग द्वेषमें रत हैं व जो आरंभोमें वर्तन करते हैं उनका हित उसी तरह नहीं होता है जैसे डरपोकका हित नहीं होता है । अशुभोपयोगके परिणामोसे यहां भी संक्लेशभाव होता है, आकुलता होती है, भय रहता है, जिससे सुख शांति नहीं प्राप्त होती है तथा उन परिणामोंके द्वारा दूसरोको भी कष्ट होता है तथा उनसे जो पापकर्मका बन्ध होता है वह उदयमें आकर जीवोंको अनेक कुयोनियोमें महा दुःख प्राप्त कराता है। इससे अशुभोपयोग मूल संस्कारका कारण है तथा सब तरहसे हानिकारक है इससे सर्वथा त्यागने योग्य है, यह भावार्थ है ॥ ६९ ॥
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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