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द्वितीया खंड
[२५७ इन्द्रियोंकी तीव्र इच्छासे विवश हो इन्द्रिय भोगोंके संकल्परूप संरंभमें, उनके प्रबन्ध रूप समारंभमें व उनके भोगने रूप आरंभमें वर्तन करता है, व क्रोध, मान, माया, लोभ कषायोंकी तीव्रतामें फंसकर इन कपायोके साथ मनके, वचनके व कायके वर्नने में लग जाता है, जिससे मारपीट करता है, गाली बकता है, दूसरेको तुच्छ समता है, कपटसे ठगता है, अन्यायसे धन एकत्र करता है, व विषय कषायोमे तथा मिथ्या एकांत धर्ममें फंसानेवाले खोटे शास्त्रोके पड़नेमे लग जाता है, व कामभोगकी या अन्य दुष्ट चितारूप फिकरोंमें लगा रहता है व खोटे मित्रों के साथ बैठकर परनिन्दा, आत्मप्रशंसा व खोटे मत्र करनेकी गोष्टीमें उलझा रहता है व जुआरमण, चौपड, सतरज, तास खेलन, भंडरूप वचन व चेष्टाके व्यवहारमे रति करता है व सदा 'भयानकरूप हो हिसा प्रवृत्ति, मृपावाद, चोरीकरण, कुशील व परिग्रहवृद्धिमे फंसा रहता है व मिनेन्द्रप्रणीत मार्गसे विरुद्ध अन्य संसारके वढानेवाले मिथ्यामार्गोकी 'सेवा पूजा भक्ति व श्रद्धामें लगा रहता है उसको अशुभोपयोग कहते है । यह अशुभोपयोग पापकर्मका बाधनेवाला है जिस पापकर्मके फलसे यह जीव नरक, निगोद, तिर्यच व खोटी मनुष्य पर्यायमे जाकर महान् असह्य सकटोंको उठाता है। श्री पंचास्तिकायमे भी आचार्यने अशुभोपयोगका स्वरूप इसतरह कहा है:
चरिया पमादबहुला कालुस्स लोलदा य विसयेसु । परिपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि ॥ १३९ ॥
भावार्थ-स्त्री, भोजन, राजा व देश कथा सम्बन्धी भावोमें मिली हुई वृथा राग उपजानेवाली प्रमादरूप क्रिया अथवा असा