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श्रीप्रवचनसारटीका ।
विशेषार्थ :- जो विषय कषाय रहित शुद्ध चैतन्यकी परिणतिसे विरुद्ध विषय कषायों में परिणमन करनेवाला है उसे विषय कषायावगाढ़ कहते हैं । शुद्ध आत्मतत्त्वको उपदेश करनेवाले शास्त्रको सुश्रुति कहते हैं उससे विलक्षण मिथ्या शास्त्रको दुःश्रुति कहते हैं। निश्चिन्त होकर आत्मध्यानमें परिणमन करनेवाले मनको सुचित्त कहते हैं । व्यर्थ वा अपने और दूसरेके लिये इष्ट कामभोगोंकी चिंतामें लगे हुए रागादि अपध्यानको दुश्चित्त कहते हैं, चरम चैतन्य परिणतिको उत्पन्न करनेवाली शुभ गोष्ठी है यां संगति है उससे उल्टी कुशील या खोटे पुरुषोंके साथ गोष्ठी करना दुष्ट गोष्ठी है। इस तरह तीन रूप जो वर्तन करता है उसे दु. श्रुति, दुश्चित्त, दुष्टगोप्टीसे युक्त कहते हैं । परम उपशम भावमें परिणमन करनेवाले परम चैतन्य स्वभावसे उल्टे भावको जो हिंसादिमें लीन है उग्र कहते हैं, वीतराग सर्वज्ञ वय व्यवहार मोक्षमार्गसे विलक्षण भावको उन्मार्ग में हैं इसतरह चार विशेषण सहित परिणामको व ऐसे परिणत होनेवाले जीवको अशुभोपयोग कहते हैं । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने अशुभोपयोगका बहुत ही बढिया स्वरूप बताया है ।
कथित नि
लीन कहते
परिणामों में
ज्ञान दर्शनोपयोगकी परिणतिमें जब ऊपर लिखित शुभोपयोगके व शुद्धोपयोगके भाव नहीं होते हैं तब तीसरे अशुभोपयोगके भाव अवश्य होते हैं। क्योंकि हरएक जीवके तीन प्रकार के उपयोगों में से एक न एक उपयोग एक समय में अवश्य पाया जायगा । अशुभोपयोग भावकी पहचान यह है कि जिसका उपयोग पांचों