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द्वितीय खंड 1
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कारण है । मोक्षका कारण साक्षात् शुद्धोपयोग है जहां मात्र शुद्ध आत्मामें ही आप तन्मय रहकर वीतरागभावमें लीन रहता है । इसलिये शुद्धोपयोगको ही उपादेय मानकर उस रूप होनेकी चेष्टा करते हुए जबतक शुद्धोपयोग न हो शुभोपयोगमें वर्तना चाहिये ।
वास्तवमें शुभोपयोग धार्मिक भाव है सो सम्यग्दृष्टिके पाया जाता है मिथ्याष्टके नहीं । तथापि जहां व्यवहारकी दृष्टिसे देखा जाता है वहां निश्चय सम्यक्त न होते हुए जो व्यवहार सम्यक्ती देवगुरु शास्त्रकी भक्ति तथा दया मार्ग में व परोपकारमें वर्तन करता है उसको भी मंदकषाय होनेसे शुभोपयोग कह सक्ते हैं । यह शुभोपयोग अतिशय रहित साधारण पुण्य कर्म बंध करता है जब कि सम्यक्त्व सहित शुभोपयोग अतिशयरूप भारी विशेष पुण्य कर्मवाता है ॥ ६८ ॥
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उत्थानिका- आगे अशुभोपयोगका स्वरूप कहते हैंविसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुदुगोजुदो । उग्गो उम्मग्गपरे। उवओगो जस्स सो असुहो ॥ ६६ ॥ विषय पायावगाढो दुग्तदुश्चिनदुष्टगो ष्टयुत ।
उम्र उन्मार्गपर उपयोगो यस्य सोऽशुभः ॥ ६९ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थः - ( जस्स) जिस जीवका ( उबओगो) उपयोग ( विमयकसा ओगाढो ) विषयोकी और कषायोकी तीव्रता से भरा हुआ है ( दुस्सु दिदुच्चितदुट्टगोट्टिजुदो ) खोटे शास्त्र पढने सुनने, खोटा विचार करने व खोटी सगतिमई वार्ता
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लापमें लगा हुआ है, (उग्गो) हिंसादिमे उद्यमी दुष्ट रूप है, (उ. म्मग्गपरो) तथा मिथ्यामार्गमे तत्पर है ऐसे चार विशेषण सहित है ( सो असुहो) सो अशुभ है ।