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द्वितीय खंड। भावार्थ-उसी ही अपने आत्माको अनुभव करताहुआ परम एकाग्रभावको पाता है तथा वचनअगोचर स्वाधीन आनन्दका लाम करता है। जैसे वायु रहित प्रदेशोंमें रक्खा हुआ दीपक नहीं कापता है-अखंड जलता है तेसे योगी अपने आत्मस्वरूपमें स्थिर होता हुआ एकाग्रभावको नहीं त्यागता है तब बाहरी अन्य पदाकि होते हुए भी अपने आत्मामें अपने आत्माको अनुभव करते हुए और कुछ भी नहीं झलकता है। इस तरह अपने आत्माको एकाग्रमावसे अनुभव करते हुए वह योगी 'निसका सर्व अहंकार ममकार नष्ट होगया है' आगामी आने योग्य कर्मोको रोक देता है
और पुराने वाधे हुए कौका क्षय करता है । यही शुद्धोपयोगकी दशा है। श्री देवसेनाचार्य तत्वसारमे कहते है -
ससहाव वेदतो णिचलचित्तो विमुकपरभावो । सो जीवो णायव्यो दसणणाणं चरित्त च ॥५६ ॥ जो अप्पा त णाणं ज णाग त च दसण चरण । सा नुद्धचेयणावि य पिच्छयणयमस्सिए जीवे ॥५७॥
भावार्थ-वह योगी निश्चल चित्तको परभावोसे छूटा हुआ अपने स्वभावको जब अनुभव करता है तब वही जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र म्वरूप जानना चाहिये । जो जीव निश्चयनयके विषयरूप शुद्ध भावमें आश्रय लेता है उसके अनुभवमें जो आत्मा है सोही ज्ञान है, जो ज्ञान है वही सम्यग्दर्शन व सम्य- ' ग्चारित्र है अथवा वही शुद्ध जान चेतना है।
शुद्धोपयोग परम कल्याणकारी है ऐसा जान इसीको उपादेय मान इसीका उद्यम करना चाहिये । इसतरह शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोगका वर्णन करते हुए तीसरे स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई।