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श्रीप्रवचनसारटीका। उत्थानिका-आगे शरीर, वचन और मनके सम्वन्धमें मध्यस्थभावको झलकाते हैं
णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसि । कत्ता ण ण कारयिदा अणुमत्ता व कत्तीणं ॥ १ ॥
णाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारण तेपाम् । • कर्ता न न कारयिता अनुमंता नैय कर्तगाम् ॥ ७१ ॥
अन्वयसहित सामान्यार्थ:- (अहं देहो ण) मैं शरीर नहीं हूं रण मणो) न मन हूं (ण चेव वाणी ) और न वचन ही हूं (ण तेसिं कारणं) न इन मन वचन कायका उपादान कारण हूं। (ण कर्ता) न मैं इनका करनेवाला है (ण कारयिदा) न करानेवाला हूँ (णेव कत्तीणं अणुमंता) और न करनेवालोंकी अनुमोदना करता हूं।
विशेषार्थ-मन, वचन, कायके व्यापारसे रहित 'परमात्म द्रव्यसे भिन्न जो मन, वचन, काय तीन है। मैं निश्चयसे इन रूप नहीं हूं इसलिये इनका पक्ष छोड़कर मै अत्यन्त मध्यस्थ होता हूं। विकार रहित परम आनन्दमई एक लक्षणरूप सुखामृतमे परिणति होना उसका जो उपादान कारण आत्मद्रव्य उसरूप मैं हूं। मन वचन कायोंका उपादान कारण पुद्गल पिड है' मै नहीं हूं। इस कारणसे उनके कारणका भी पक्ष छोडकर मध्यस्थ होता हूं। मै अपने ही शुद्धात्माकी भावनाके सम्बन्धमें कर्ता, करानेवाला तथा अनुमोदना करानेवाला हूं परंतु उससे विलक्षण मन वचन कायके सबंधमें कर्ता, ' करानेवाला, तथा अनुमोदना करनेवाला नहीं हूं। इसलिये इसका पक्ष भी छोड़कर मैं अत्यंत मध्यस्थ होता हूं।
भावार्थ-इस संसारी प्राणीकी सर्व व्यवहार क्रियाएं मन,