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________________ द्वितीय खंड। [२६३ वचन, कायके व्यापारसे होती है। यहां आचार्य शुद्धात्माकी तरफ लक्ष्य करके कहते हैं कि यह आत्मा न शरीर है, न मन है, न बाणी है, न उनका कारण है, न उनका कर्ता है, न करनेवाला है, न इनका होना किसीके चाहता है। निश्चय नयसे आत्मा ज्ञायकखभाव है। उसका स्वभाव न शरीर लेना न उसकी क्रिया करना , है, न वचनोका व्यवहार करना है न मनका सकल्प विकल्प करना है । जितनी मन वचन कायकी क्रियाएं होती है वे मुख्यतासे मोहके कारणसे सराग अवस्थामे तथा नामकर्मके कारणसे वीतराग अवस्थामे होती हैं। इनकी क्रियाओमें बारहवें गुणस्थान तक क्षयोपशम ज्ञानोपयोग काम करता है जो आत्माके शुद्ध ज्ञानसे भिन्न है। जैसे मन वचन कायकी क्रियाए स्वभावसे शुद्ध कर्म रहित आत्मामे नहीं होती है वैसे मन, वचन, कायकी रचना भी आत्मासे नहीं होती है न आत्मा उनरूप है, न उनका कारण है क्योकि आत्मा चैतन्यरूप अमूर्तीक है, जब कि मन वचन काय जरूप मूर्तीक हैं । हृदयस्थानमें मनोवर्गणासे बना हुआ द्रव्य मन आठ पत्रके कमलके आकार है। भाषा वर्गणाओंसे वचन, तथा आहारक वर्गणा ओंसे हमारा शरीर बनता है। इस तरह ये मन वचन काय पुद्गलमई हैं। इनका कारण भी पुद्गल है । मेरे चैतन्य स्वमावसे ये सर्वथा भिन्न हैं ऐसा समझकर इनसे वैराग्यभाव लाकर शरीरमें बिराजित शुद्धात्माको ही अपना स्वरूप समझना चाहिये । जबतक इन मन वचन कायोमे अहंबुद्धि न छोड़ेगा तबतक इस जीवको स्वपदका भान नही होसक्ता । श्री पूज्यपादस्वामीने समाधिशतकमे कहा है
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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