SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ ] श्रीप्रवंचनसारटोका। बुद्धथा यावद् गृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम् । ससारस्तावदेवेषा भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः ॥ ६२ ॥ भावार्थ-जब तक मन वचन कायोको आत्माकी बुद्धिसे सम'झता रहेगा तब तक इसके संसार है । इन हीसे मैं पृथक् हूँ ऐसे भेदका अभ्यास होनेपर मुक्तिका लाभ होता है । जो निन शुद्ध आत्माको शरीरादिसे भिन्न नहीं अनुभव करते हैं वे अज्ञानी रहते हैं जैसा श्री अमितिगति महारानने सामायिकपाठमें कहा है गौरो रूपधरो दृढः परिदृढ़ः स्थूलः कृशः कर्षशो । गीर्वाणो मनुजः पशुनरकभूः पंढः पुमानगना ।। मिथ्या त्वं विदधासि क्त्पनमिदं मूढोऽविवुध्यात्मनो । नित्य ज्ञानमयस्वभावममलं सर्वव्यायच्युत ॥ ७० ॥ भावार्थ-मूर्ख अज्ञानी जीव सर्व दोष व विघ्नोसे रहित निर्मल अविनाशी ज्ञानमई स्वभावधारी आत्माको न जानकर यह मिथ्या कल्पना किया करते हैं कि मैं गोरा हू, रूपवान है, वलवान् हू निर्बल हूं, स्थूल हूं. पतला हूं, कठोर हूं, देव हू, मनुष्य हूं, पशु हूं, नारकी हूं, नपुसक हूं, पुरुष हूं तथा स्त्री हूं। वास्तवमे जिन्होने अपने आत्माके स्वभावको अच्छी तरह मान लिया है उनकी कल्पना शरीर, वचन व मन सम्बन्धी क्रिया ओंमें कभी नही होती है। वे अखंड ज्योतिमई अपने आत्माको समझते हुए ससारकी अवस्थाओंके ज्ञाता दृष्टा रहते हैं, उनसे स्वयं विकारी नहीं होते हैं ॥१॥ उत्थानिया-आगे शरीर, वचन तथा मनको शुद्धात्माके स्वरूपसे भिन्न परद्रव्यरूप स्थापित करते हैं
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy