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१९८] श्रीप्रवचनसारटीका ।
तात्पर्य यह यह है कि कालद्रव्यके स्वभावको अपने आमासे भिन्न जानकर अपने निज ज्ञानानन्दमई स्वभावमे ही अप. नेको निजानन्द लाभके लिये तन्मय होना योग्य है ।। ४८ ।। ___उत्थानिका-आगे पूर्व कहे हुए काल पदार्थके पर्याय स्वरूपको और द्रव्य स्वरूपको बताते हैं:
वदिवददो तं देसं तस्सम समओ तदो परो पुच्चो । जो अंत्थी सो कालो समओ उप्पण्णपद्धसी ॥ ४६॥ व्यतिपततरत देश तत्समः समयरततः परः पूर्वः । योऽर्थः त काल: समय उत्पन्नप्रध्वंसी ॥ ४९ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थः-(तं देस) उस कालाणुसे व्याप्त आकाशके प्रदेशपर ( वदिवददो) मंदगतिसे जानेवाले पुद्गल परमाणुको (तस्सम समओ) जो कुछ काल लगता है उसीके समान समय पर्याय है । (तदो परो पुन्यो जो अत्थो) इस समय पायके आगे और पहले जो पदार्थ है (सो कालो) वह काल द्रव्य है । (समओ उम्पण्ण पद्धंसी) समय पर्याय उत्पन्न होकर नाश होनेवाली है।
विशेषार्थः-जब तक एक पुद्गलका परमाणु मंदगतिसे एक कालाणुव्याप्त आकाशके प्रदेशसे दूसरे कालाणु व्याप्त आकाशके प्रदेशपर आता है तबतक उसमे जो काल लगता है उसीके समान कालाणु द्रव्यकी सूक्ष्म समय नामकी पर्याय होती हैयही व्यवहारकाल है। कालद्रव्यकी पर्यायका यह स्वरूप कहा गया। इस समय पर्यायके उत्पन्न होनेके पहले जो अपनी पूर्व पूर्व समय पर्यायोमे अन्वय रूपसे बराबर चला आरहा है व आगामी कालमे होनेवाली समय पर्यायोमें अन्वय रूपसे बरावरा चला