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। द्वितीय खंड। . [१८५ विशेषार्थ-हरएक जीव संसारकी अवस्थामें व्यवहार नयसे. अपने प्रदेशोमें संकोच विस्तार होनेके कारणसे दीपकके प्रकाशकी तरह अपने प्रदेशोकी संख्या कमी व बढ़ती न होता हुआ शरीरके प्रमाण आकार रखता है तौभी निश्चयसे लोकाकाशके चरावर असंख्यात प्रदेशवाला है । धर्म और अधर्म सदा ही स्थित हैं उनके प्रदेश लोकाकाशके वरावर असंख्यात हैं । स्कंक अवस्थामें परिणमन किये हुए पुद्गलोंके संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं, किन्तु पुद्गलके व्याख्यानमें प्रदेश शब्दसे 'परमाणु ग्रहण करने योग्य है, क्षेत्रके प्रदेश नहीं क्योकि पुद्गलोंका स्थान अनन्त प्रदेशवाला क्षेत्र नहीं है। सर्व पुद्गल असंख्यात प्रदेगवाले लोकाकाशमें हैं उनके स्कंध अनेक जातिके बनते हैंसख्यात परमाणुओके, असंख्यात परमाणुओंके तथा अनत परमाणुओंके स्कंध बनते है वे सूक्ष्म परिणमनवाले भी होते हैं इससे लोकाकाशमे सब रह सक्ते है । एक पुद्गलके अविभागी परमाणुमें अगटरूपसे एक प्रदेशपना है मात्र शक्तिरूपसे उपचारसे बहुप्रदेशीपना है क्योकि वे परस्पर मिल सक्ते हैं । आकाशद्रव्यके अनंत प्रदेश हैं। कालद्रव्यके बहुत प्रदेश नहीं है। हरएक कालाणु कालद्रव्य है सो एक प्रदेश मात्र है। कालाणुओमे परमाणुओकी तरह परस्पर सम्बन्ध करके स्कंधकी अवस्थामे बदलनेकी शक्ति नहीं है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने पाच अस्तिकायोको गिनाया है। जितने क्षेत्रको एक अविभागी पुद्गलका परमाणु रोकता है उसको प्रदेश कहते है यह एक प्रकारका माप है। इस मापसे यदि छः द्रव्योंको मापा जाता है तो अखंड एक जीव द्रव्यके, अखंड