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१८६] श्रोप्रवचनसारटोका। एक धर्मद्रव्यके, अखंड एक अधर्म द्रव्यके प्रत्येकके असंख्यात प्रदेश लोकाकाशके समान मापमे आते हैं तथा अखण्ड एक आकाशके अनन्त प्रदेश हैं । ससारी जीव गरीर प्रमाण सकुड़ने फैलनेकी अपेक्षा रहते हैं-जीवके प्रदेशोमें ऐसी शक्ति है कि नाम कर्मके उदयके अनुसार छोटे शरीरमें छोटे शरीर प्रमाण व बड़े शरीरमें बड़े शरीर प्रमाण हो जाते है तो भी असंख्यातकी मापको नहीं छोड़ते हैं । सिद्ध जीव अतिम शरीरसे कुछ कम आकारवान रहते है । क्योकि नामकर्मके विना मोक्ष होनेपर आत्माके प्रदेश न सकुड़ते हैं न फैलते हैं। पुद्गलद्रव्य जब एक अविभागी परमाणुरूपमें होता है तब तो वह एक प्रदेशवाला है, परन्तु उसमे मिलनेकी शक्ति है इस लिये उसको व्यवहारसे बहुपदेशवाला कहते हैं। इन परमाणुओके स्कंध रूक्ष चिक्कण गुणके कारण बन जाते हैं। स्कंधकी अपेक्षा पुदल संख्यात, असंख्यात और अनंत परमाणुओको रखनेसे संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी हैं। कालद्रव्य . रत्नके ढेरके समान लोकाकाशके एक एक प्रदेशमें अलग२ है वे कभी मिल नहीं सक्ते इससे हरएक कालद्रव्य एक प्रदेशी है-कायवान नहीं है, तब काल सिवाय पांच द्रव्य ही कायवान ठहरे। ऐसा ही श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने द्रव्यसंग्रहमें कहा है:
होति असंखा जीवे धमाधम्मे अणंत आयासे । मुत्ते तिविहपदेसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ।
अर्थात्-एक जीव, धर्म, अधर्ममे असंख्यात, असंख्यात, आकाशमे अनंत, मुद्गलमें सख्यात, असंख्यात, अनंत तीन प्रकार प्रदेश होते हैं जब कि कालका एक ही प्रदेश होता है इसलिये वह काय नही है ।-४४ ॥