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२६२] श्रीप्रवचनसारटोका।
भावार्थ-जिस आत्माके मिथ्यात्त्वादि परिणामसे कर्म पुद्गल आता है वह भावाश्रव है और जो ज्ञानावरणादिके बंध योग्य पुद्गलोका आना अर्थात् बंधके सम्मुख होना सो द्रव्याश्रव है। पाश्रव और वंध दोनो एक समयमें होते हैं । वर्गणाओका इधर उधरसे आत्माके प्रदेशोमें आना सो आश्रव तथा उनका बैठे रहनाएक क्षेत्रावगाहरूप बने रहना सो बंध है। एक समयमें बंधा हुआ द्रव्य पुद्गल आश्रव रूप तो बंधके समयमें ही हुआ परंतु बंध रूप अवस्था उस समय तक रहेगी जबतक वे कर्म अपनी स्थितिको न छोडेंगे और आत्माके प्रदेशोंसे छूट न जायगे । यहां प्रयोजन यह है कि आत्मा स्वभावसे कर्मोका न आश्रव करता है नबंध करता है। संसारी आत्माएं पूर्व कर्मके उदयसे जब सकम्प होती है तब स्वभावसे ही निमित्त पाकर वे पुद्गल स्वयं आकर कर्मरूप वध जाते है जैसा कि श्री अमृतचंद्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा है
जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रे प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽपुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १२ ॥
जीवके भावोंका निमित्त पाकर अन्य अबद्ध कार्माण पुद्गल अपने आप ही कर्मरूप होकर बंध जाते हैं । इससे यह अनुभव करना चाहिये कि आत्मा पुद्गलोका कर्ता नहीं है ॥ ७९ ॥
उत्थानिका-आगे फिर भी कहते हैं कि यह जीव कर्म स्कंधोंका उपादानकर्ता नहीं होता है।
कम्मत्तणपाओगा खंधा जीवस्स परिणई पप्पा । गच्छन्ति कम्मभावं ण दु ते जीवेणई परिणमिदा ॥ ८० ॥