SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खंड [ २६१ बद्ध देवदत्त जो है सो पराधीनपणातें बाछित स्थानने प्राप्त होने का अभावतें अति दुःखी होय है तैसे ही आत्मा कर्म बंधनकरि बद्ध हुवो संतो पराधीनपणातें शरीर सम्बन्धी दुखकरि पीडित होय है ॥ १७ ॥ लोकवार्तिकके छठे अध्यायमे आश्रवका स्वरूप कहते हुए कहा है - " स आश्रव इह प्रोक्त कर्मागमनकारणं " वह योग ही भव है । क्योंकि कर्मो के आगमनका कारण है । योग भाव श्रव है। इससे यह सिद्ध है कि कमौका आगमन होना वह द्रव्याश्रव है । आगे " शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य " सूत्रकी व्याख्या में कहा है कि " सम्यग्दर्शनाद्यनुरंजितो योगः शुभो विशुयगत्वात् । मिथ्यादर्शनाद्यनुरंजितोऽशुभः संक्लेशांगत्वात् । स पुण्यस्य पापस्य च वक्ष्यमाणस्य कर्मण आश्रवो वेदितव्य । अर्थात् सम्यग्दर्शनादिसे रजित शुभ योग है क्योकि विशुता है तथा मिथ्यादर्शनादिसे अनुरंजित योग अशुभ है क्योकि संक्लेशता है । ये ही क्रमसे पुण्ण पाप कर्मके आश्रव जानने चाहिये। इन योगोसे पुद्गल आते है। जैसा कहा है "शुभाशुभफलाना तु पुद्गलानां समागम." कि शुभ या अशुभ पुद्गलोका समागम होता है । इस पूर्व कथनसे यही बात सिद्ध होती है जसे कि द्रव्य संग्रह में कही है ---- आसयदि जेण हम्म परिणामेणवोस विष्णेयो । मात्रासवो जिणु दव्यासवणं परो होदि ।। जाणावादीण जोगंज पुग्गलं समान्वदि । दासवो स णेओ अणेयमेवो जिनकला ||
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy