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________________ २६०] श्रीप्रवचनसारटोका। बंध तत्वका यह लक्षण “जीवाजीवाश्रव, "के सूचकी व्याख्यामें किया है वार्तिक-पुण्यपापागमनद्वारलक्षण आश्रवः। टीका-पुण्यपापलक्षणस्य कर्मण आगमद्वारमानव इत्युच्यते । आश्रव इवाश्रवः क उपमार्थः ? यथा महोदधे सलिलमापगामुखेरहरहरापूर्यते । तथा मिथ्यादर्शनादिद्वारानुप्रविष्टैः कर्मभिरनिशमात्मा सम्पपूर्यत इति मिथ्यादर्शनादिद्वारमाश्रवः । ___अर्थ-पुण्य पाप लक्षण कर्मका आगमनका द्वार जो है सो आश्रव है । आश्रव जो छिद्र ताके समान हो सो आश्रव है। जैसे समुद्रके विषे जल नदीनिका मुखकर निरन्तर परिपूर्ण होय है यातें मिथ्यादर्शनादि 'द्वारकरि अनुप्रविष्ट कर्म जे है तिनकरि आत्मा निरंतर परिपूर्ण होय है यातें मिथ्या दर्शनादिक द्वार जो है सो आश्रव है ॥ १६ ॥ भावार्थ-वास्यमे यह द्वार है सो भावाश्रव है और कर्म पुद्गलोंका प्रवेग होना सो द्रव्य आश्रव है। वा-आत्मकर्मणोरन्योन्यमदेशानुभवेशलक्षणो बंध:टीका-मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययोपनीतानां कर्मप्रदेशानामात्मप्रदेशानां च 'परस्परानुप्रवेशलक्षणो बंधः । बंध इव बंध क उपमार्थः ? यथा निगडादि द्रव्यबंधनबद्धो देवदत्तोऽवतंत्रत्वादभिप्रेतदेशगमनायभावादति खी भवति तथात्मा कर्मबंधनवह, पारतत्र्याच्छरीरमानसद्धःखाभ्यर्दितो भवति । अर्थ-मिथ्यादर्शनादि कारण करि ग्रहण किये कर्म प्रदेशनिका और आत्म प्रदेगनिका परस्पर अनुप्रवेश है लक्षण नाका सो बंध है । वधके समान वध है । जैसे वेड़ी आदि द्रव्य बंधनकार
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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