________________
द्वितोय खंड।
[२८९ अयोग्य है। इस प्रकार एक क्षेत्र स्थित योग्य, १ एक क्षेत्र स्थित अयोग्य २, अनेक क्षेत्र स्थित योग्य ३, अनेक क्षेत्र स्थित अयोग्य ये चार भेद हुए। इन चारोमें भी एक एकके सादि तथा अनादि भेद जानना । जो पहले ग्रहण किये जाचुके हैं उनको सादि कहते है व निनको अभीतक ग्रह्ण नहीं किया. गया है उनको अनादि कहते है। यह जीव मिथ्यात्वादिके निमित्तसे समय समय प्रति कर्मरूप परिणमने योग्य समय प्रबद्ध प्रमाण परमाणुओको ग्रहणकर कर्मरूप परिणमाता है। वहां किसी समय तो पहले ग्रहण किये हुए जो सादि द्रव्यरूप परमाणु है उनका ही ग्रहण करता है। किसी समयमे अभीतक ग्रह्ण करनेमें नहीं आए ऐसे अनादि द्रव्यरूप परमाणुओको ग्रहण करता है और कभी मिश्ररूप ग्रहण करता है । समय प्रबहका यह प्रमाण है
स्यलरसरूपग परेणद चरमचदुहिं फासेहिं । सिद्धादोऽमन्यादोऽगतिमभाग गुण दव्य ॥ १९१ ॥
यह समय प्रबह सब पाच प्रकार रस, पाच प्रकार वर्ण, दो प्रकार गन्ध तथा शीतादि चार अतके स्पर्श इन गुणोकर सहित परिणमता हुआ सिद्ध राशिके अनंत भाग-अथवा अभव्य राशिसे अनन्तगुणा पुद्गल द्रव्य जानना ।
भावार्थ-इतना द्रव्यकर्मरूप या नोकर्मरूप यह संसारी जीव हरसमय ग्रहण करके बाधता रहता है। इनमे योगोकी विशे पतासे कुछ कम व अधिक सख्या होती है ।
श्री अकलंकदेवकृत तत्वार्थरानवार्तिकमे आश्रव और