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________________ २८८] श्रीप्रवचनसारटोका । . भावार्थ-पुद्गलविपाकी शरीर नाम कर्मके उदयसे मन वचन कायसे युक्त जीवकी वह शक्ति जो कर्मोके और नोकोक आनेमें कारण है योग शक्ति है। यह भाव योग है-और आत्माके प्रदेशोका सकम्प होना द्रव्य योग है। गोमटसार कर्मकांडमें प्रदेशबन्धका स्वरूप ऐसा दिया हुआ है. एयक्खेत्तोगाढं सत्यपदेसेहिं गम्मणो जोगं । - बंदि सगहेदूहि य अणादिय सादियं उभयं ।। १८५ ॥ . भावार्थ-जघन्य अवगाहनारूप एक क्षेत्रमें स्थित और कर्मरूप परिणमनेके योग्य अनादि अथवा सादी अथवा दोनों रूप जो पुद्गल द्रव्य है उसको यह जीव अपने मब प्रदेशोंसे मिथ्यात्त्वादिके निमित्तसे बांधता है। एय सरीरो गाहियमेयस्खन अणेयखेत्तं तु । अवसेसलोयखेत्त खेतणसारिहि त्वी ॥ १८६ ।। भावार्थ-एक शरीरसे रुकी हुई जगहको एक क्षेत्र कहते है शेव सर्व लोकके क्षेत्रको अनेक क्षेत्र कहते हैं। अपने २ क्षेत्रमे ठहरे हुए पुद्गल द्रव्यका प्रमाण त्रैराशिकसे समझ लेना। यहांपर नघन्य शरीर ही एक शरीर लेना क्योंकि निगोद शरीरवाले जीव बहुत है। इस कारण घनांगुलके असंख्यातवें भाग एक क्षेत्र हुआ। एयाणेयवेत्तद्धिय रूवि अणतिम हवे जोगं । अवसेस तु अजोगं सादि अणादी हवे तत्थ ॥ १८७ ॥ भावार्थ-एक तथा अनेक क्षेत्रोंमें ठहरा हुआ जो पुद्गल द्रव्य है उसके अनन्तवें भाग पुद्गल परमाणुओंका समूह कर्मरूप होनेको योग्य है और शेष अनन्त बहुभाग प्रमाण कमरूप होनेके
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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