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द्वितीय खंड ।
[२८७ शक्तिका परिणमन होता है वैसी ही कम व अधिक कर्म वर्गणाओंका ग्रहण होता है । ये कर्म वर्गणाएं कुछ तो ऐसी ही हैं जो आत्माके प्रदेशोंमें ही बैठी हैं अर्थात् आत्माके प्रदेश जहां हैं वहां ही अनंतानंत बन्धने योग्य निष्ठ रही हैं अथवा कुछ ऐसी हैं जो आत्माके प्रदेशोंसे बाहर हैं । इनमें भी कुछ ऐसी हैं जिनको यह जीव ग्रहणकर चुका है। कुछ ऐसी हैं जिनको इस जीवने कभी ग्रहण नहीं किया है। योगोंके निमित्तसे यथासम्भव खक्षेत्र व पर क्षेत्रमें तिष्ठती वर्गणाएं कमी ग्रहीत कभी अग्रहीत कमी मिश्र बंधनेको सन्मुख होती हैं इसहीको आश्रव कहते हैं। तथा उनका जीवके प्रदेशोंके साथ स्थिति अनुभागको लिये परस्पर एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होनाता है। उन वर्गणाओंका अपने मूल स्थानको छोडना यह तो आश्रव है और आत्माके प्रदेशोमें एक क्षेत्रके अवगाह रूपसे बंध होजाना सो बंध है। यदि आत्माके प्रदेशोंमें तिष्ठती हुई ही वर्गणाओंका बध हो तो भी उन वर्गणाओंको हलन चलन करके सर्व आत्म-प्रदेशोंमें व्यापना पड़ेगा यही आश्रव है और फिर उनका आत्मप्रदेशोंमे यथासम्भव ज्ञानावरणादि प्रतियोकी संख्याको लिये हुए एक क्षेत्रावगाह रूप ठहर जाना और ठहरे रहना सो बन्ध है।
योगशक्तिके निमित्तसे कर्मोंका आना अर्थात् बन्धके सन्मुख होना होता है यह आश्रव है ऐसा ही भाव श्री गोम्मटसार जीवकांडमें कहा है
पुग्गलविवाइदेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवरस जाहु सत्तो कम्मागमारणं जोगगे ॥२१५॥