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२८६ ] श्रीप्रवचनसारटोका । commmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmww.mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm स्वयं बन्ध योग्य होनाती हैं। आत्माका स्वभाव कर्मोको ग्रहण करनेका नहीं है इसलिये यह आत्मा कर्म वन्धका न उपादान कर्ता है न निमिक्त कर्ता है जैसा कि स्वयं तामीने श्रीसमयसारजीमें कहा है
जे पुग्गलव्याणं परिणामा होति णाणआवरणा। __ण फरेदि ताणि आदा जो जाणदि साहबदि णाणो ॥३०॥
भावार्थ-जो ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मोके परिणमन होते हैं उनको यह आत्मा न उपादान रूपसे कर्ता है न निमित्त रूपसे कता है, यह तो मात्र उन सर्वकी सब अवस्थाओको जाननेवाला है। आत्माका निज स्वभाव ज्ञाता दृष्टा है जब हम शुद्ध निश्चयनयसे आत्माके असली स्वभावको विचार करते हैं तब वहां आत्मा सब तरह पुद्गल द्रव्यका अकर्ता और भोगता झलकता है तोभी यह बात जान लेनी चाहिये कि इस आत्मामें अनन्त शक्तियां हैं उनमेसे कोई शक्तियां अशुद्ध अवस्थामें काम करती हैं परन्तु वे शक्तियां शुद्ध अवस्थामें काम नहीं करती हैं। जैसे वैभाविक शक्ति निसके कारण यह जीव रागद्वेष रूप परिणमन करता है या योगशक्ति जिससे जीव कर्मोके बन्धनमें निमित्त होता है। पूर्ववद्ध चारित्र मोहनीयके उदयसे वैभाविक शक्ति और नामकर्मक उदयसे योग शक्ति परिणमन करती है। इसी हेतुसे शुद्ध आत्माको लक्ष्यमें लेकर आत्माको कर्मोका अकर्ता तथा अभोक्ता कहा है। यहां यह भी समझना चाहिये कि आत्माके मन वचन काय योगोका परिणमन अथवा आत्म प्रदेशोंका परिणमन व कर्म ग्रहण करनेमें मूल कारणभूत आत्माकी योगशक्तिका परिणमन सब जीवोके एक समान नहीं होता है किसीके अधिक किसीके कम । जैसी योग