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द्वितीय खंड।
[२८५ इससे जाना जाता है कि जितने शरीरको रोककर एक जीव टहरता है उसी ही क्षेत्रमें कर्मयोग्य पुद्गल भी तिष्ठरहे है-जीव उनको कहीं बाहरसे नहीं लाता है।
भावार्थ-इस गाथामे आचार्य ने यह दिखलाया है कि जीव खभावसे फर्मवर्गणाओको वहीसे लाते नहीं है-यह असख्यात प्रदेशीलोक सर्व तरफ अनंतानत पुगल स्कंधोंसे भराहुआ है । एक आकाशके प्रदेशमें सूक्ष्म परिणमनको प्राप्त अनंतवर्गणाए मौजूद है । सामान्यसे जगतमें सूक्ष्म तथा बादर दो प्रकारके पुद्गल रूप है। जो किसी भी इंद्रियसे ग्रहण योग्य है उनको वाथर कहते है। परतु जो किसी भी इंद्रियसे ग्रहणयोग्य नहीं है उनको सूक्ष्म कहते है । कर्मरूप होनेको योग्य कार्माण वर्गणा सूक्ष्म है। ऐसी कर्म वर्गणाए उन आकाशके प्रदेशोमें भी भरी हुई है जहां एक जीव किसी छोटे या बडे शरीरमें तिष्ठा हुआ है। कोई भी जीव बुन्हिपूर्वक उन वर्गणाओंको लेकर या खीचकर वाधता नहीं है। किन्तु जब ससारी जीवोके नाम कर्मके उदयसे आत्मामे सकम्पपना होता है तव आत्माकी योग शक्तिके परिणमनके निमित्तसे कर्म वर्षणाए यथायोग्य बन्धके समुख होकर वन्ध जाती है, ऐसा कोई निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। जैसे गर्म लोहेका गोला चारो ओरसे पानी ग्रहण करनेको निमित्त है वसे अशुद्ध जीव कर्म वर्गणाओको ग्रहण कर लेता है।
___ अथवा जैसे गर्मीका निमित्त पाकर जल स्वयं भाफरूप परिणमन करनाता है व सूर्यका निमित्त पाकर कमल स्वयं खिल जाता है इसी तरह जीवके योगका निमित्त पाकर कर्म वर्गणाए