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________________ www-. २८४] श्रीप्रवचनसारंटीको । कारणसे होती है । हमको इस आत्मीको खभाव शुद्ध ज्ञानानंदमय अनुभवकर साम्यभावमें रहना चाहिये ॥ ७॥ उत्थानिका-आगे यह आत्मा बन्ध कालमें बेन्ध योग्य पुद्गलोंको बाहर कहींसे नहीं लाता है ऐसा मगेट करते हैं । ओग्गाढ़गाणिविदो पोग्गलकारहिं सव्वदो लोगों। ' सुहुमेहिं वादरेहि अप्पाउग्गेहिं जोंग्गेहिं | vE | " अवगादगाढनचितः पुद्गलकायैः सर्वतो लोका। ... ... .. सूक्ष्मदिरेभप्रायोग्यैयोग्यः ॥ ७९ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थः-(लोगो) यह लोक (सम्वदो) अपने सर्व प्रदेशोंमें (मुहमेहिं। सूक्ष्म अर्थात् इंद्रियोंसे ग्रहणके अयोग्य (वादरेहि) वादर अर्थात् इंद्रियोंके ग्रहण योग्य (य) और (अप्पा उग्गेहिं ) कर्मवर्गणारूप होनेको अयोग्य ( जोग्गेहिं .) तथा कर्मवर्गणाके योग्य (पोग्गलकायेहि) पुद्गल स्कंधोंसे (ओग्गाढगाढणि-- चिदो) खूब अच्छी तरह बहुत गान भरा हुआ है । विशेषार्थः-यह लोक अपने सर्व प्रदेशोंमें पुद्गल स्कंधोंसे गाढ़ा भरा हुआ है वे स्कंध कोई इंद्रिय गोचर हैं, क्रोई इद्रिय गोचर नहीं है, उनमेंसे नो अत्यन्त सूक्ष्म वा स्थूल हैं वे कर्मवर्गणारूप नहीं हैं किन्तु जो अतिसूक्ष्म व स्थूल नहीं है वे कमवर्गणा योग्य हैं। यद्यपि इद्रियोंसे ग्रहणन होने के कारण ये भी सूक्ष्म है-यही यह भाव है कि जैसे यह लौंग निश्चम नेयसे शुद्ध खरूपके धारी किन्तु व्यवहार नयसे कर्मोके आधीन होनेसे एथिवी, जल, अग्नि, वायु, वानस्पतिक पांच मैदरूप सूक्ष्म स्थीवरैः शरीरोंको प्राप्त जीवोंसें निरंतर सर्व जगह राहुओं हैं तैसे यह पुद्गलोंसें भी मेरी है। N 11
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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