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________________ द्वितीय खंड । [ २६३ कर्मत्वप्रायोग्याः स्कन्धा जीवस्य परिणतिं प्राप्य । गच्छन्ति कर्मभावं न तु ते जीवेन परिणमिताः ॥ ८० ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः - ( कम्मत्तणपाओग्गा ) कर्मरूप होनेको योग्य (खंधा) पुद्गलके स्कध ( जीवस्त परिणई) जीवकी परिणतिको (पप्पा) पाकर (कम्मभावं ) कर्मपनेको (गच्छंति) प्राप्त हो जाते हैं (दु) परंतु (जीवेण) जीवके द्वारा (तेण परिणमिदा) वे कर्म नहीं परिणमाए गए हैं । विशेषार्थ - निर्दोष परमात्माकी भावना से उत्पन्न स्वाभाविक आनंदमई एक लक्षणस्वरूप सुखामृतकी परिणतिसे विरोधी मिथ्यादर्शन, रागद्वेष आदि भावोंकी परिणतिको जब वह जीव प्राप्त होता है तब इसके भावोंका निमित्त पाकर वे कर्मयोग्य पुद्गल स्कध आप ही जीवके उपादान कारणके विना ज्ञानावरणादि आठ या सात द्रव्य कर्मरूप हो जाते हैं। उन कर्म स्कंधोंको जीव अपने उपादानपनेसे नही परिणमाता है। इस कथनसे यह दिखलाया गया है कि यह जीव कर्म स्कंधोंका कर्ता नही है । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने आत्माको द्रव्य कर्मोंका अकर्त्ता और भी स्पष्ट रूप से बतादिया है । कर्तापना दो प्रकारका होता है- एक उपादान कर्तापना, दूसरा निमित्त कर्तापना । जो वस्तु दूसरे क्षणमें आप ही बदलकर किसी पर्यायरूप होनावे उसको किसी समयकी अपेक्षा कार्य और उसके पूर्व समयकी अपेक्षा उसको उपादान कारण कहते है । जैसे रोटीका उपादान कारण आटा, आटेका उपादान कारण गेहूं, इत्यादि । सुवर्णकी मुद्रिकाका उपादान कारण सुवर्णकी डली | पुद्गलकी अवस्थाका उपादान कारण पुद्गल
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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