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________________ २६४] श्रीप्रवचनसारटोका। है, जीवकी अवस्थाका उपादान कारण जीव है । जो उपादान कारण कार्यके लिये सहकारी कारण हो उनको निमित्त कारण कहते हैं। जैसे गेहूंका आटा बनानेमे चक्की आदि, आटेको रोटी वनानेमें चकला, तवा, वेलन, अग्नि आदि । हरएक कार्यके लिये उपादान और निमित्त कारणोकी आवश्यक्ता होती है। दो कारणों के विना कार्य नहीं होसक्ता है । इसी नियमके अनुसार ज्ञानावरणादि आठ प्रकार पौद्गलीक कर्मके बंध होनेमें उपादान कारण कर्म वर्गणाएं हैं। वे पुद्गलके कार्माण स्कंध आप ही अपनी शक्तिसे द्रव्य कर्मरूप होजाते हैं। इनके इस उपादान रूप कार्यके लिये निमित्त कारण जीवके अशुद्ध परिणाम हैं । जब आत्मा पूर्वमें बांध हुए कर्मोके उदयके असरसे अपने प्रदेशोमें सकम्प होता है और क्रोधादि कषायोसे मैला होजाता है तब ही इस आत्माके अशुद्ध योग और उपयोग कर्मके बंध होनेमें निमित्त होते हैं। जो आत्मा शुद्ध है वह कर्मबंधमे निमित्त कारण भी नहीं है। अतएव यदि शुद्ध निश्चय नयसे किसी भी आत्माके असली खभावका विचार करे तो यही झलकेगा कि यह आत्मा स्वभावसे इन पौगलिक फर्मोका न उपादानकर्ता है और न निमित्तकर्ता है । वहुतसे काम एक दूसरेके विना करे व चाहे हुए भी निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धसे होते रहते हैं । कोई मनुष्य रोगी होना नहीं चाहता है, परन्तु शरीरमें जब अशुद्ध द्रव्य असर करता है तब रोग पैदा होजाता है। हम यदि दो सेर पानी अग्निपर चढ़ावें और यह चाहे कि दो सेरसे कम न हो। हमारी इस चाहके अनुसार काम न होगा। वह पानी अवश्य भाफ बनकर उड़ेगा और पानी कम हो.
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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