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द्विताय खंड |
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जायगा | अथवा हम यह चाहें कि अग्निपर रखते ही पानी एक सेरका आधसेर होजावे तौभी हमारी चाह के अनुसार कार्य न होगा। वह पानी अपनी शक्तिसे ही अपने यथायोग्य कालमे ही आधा रहेगा | संसारी आत्माओंके संसार होनेमें जीवके अशुद्धभाव और कर्म धका निमित्त नैमित्तक सम्बन्ध बीन और वृक्षकी तरह अनादिसे है । अनादि प्रवाहसे जैसे बीजसे वृक्ष, फिर इस वृक्षसे दूसरा बीज, इस बीजसे दूसरा वृक्ष, फिर इस वृक्षसे तीसरा बीज इसतरह जबतक वीज भस्म न हो व उगनेकी शक्तिसे रहित न हो तबतक बराबर वह वीज वृक्षकी सतानको करता रहेगा । इसी तरह पूर्ववद्ध कर्म अप्सरसे आत्माके अशुद्ध योग और उपयोग होते है । अशुद्ध योग उपयोगसे नवीन कर्मोका बंध होता है। इनही कर्मोंके उदय होनेपर फिर अशुद्ध योग उपयोग होते है। उनसे फिर नवीन कर्मोंका बंध होता है इस तरह जबतक आत्मासे योग तथा उपयोगके अशुद्ध होनेके कारण यथायोग्य नाम कर्म तथा मोहनीय कर्मके उदयका नाश न हो तबतक अशुद्ध योग और उपयोग होते रहेंगे। जिस आत्मासे स्वात्मध्यानके बलसे सर्व कर्म भस्म होजाते है वह शुद्ध होजाता है । वह शुद्ध उपयोगका धारी आत्मा सिद्ध होकर कर्मके द्वारा होनेवाली संसारकी सन्तानसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है ।
निश्चय नयसे आत्माको द्रव्य कर्माका अकर्त्ता समाजकर उसके ज्ञायकभावमे तिष्ठकर साम्यभावसे निजानदका स्वाद लेना योग्य है । श्री अमृतचद आचार्यने' 'पुरुषार्थसिद्ध्युपायमे कहा है
एवमय कमकृतेर्भावेरसमाहितोऽपि युक्त इत्र | प्रतिभाति वालिशाना प्रतिभासः स खलु भवबीजम् ||१४||