________________
·
२६६ ]
भोaranसारटोका !
भावार्थ - इस तरह यह आत्मा निश्रयसे कर्मके निमित्तसे होनेवाले भावोंसे व कर्मरूप पौगलिक कर्मोंसे संयुक्त न होनेपर भी अज्ञानियोंको स्वभावसे ही यह आत्मा रागी द्वेषी मोही व कर्म चंघरूप मालूम होता है यही उनका अज्ञान संसारका बीज है । इसी बीजसे संसार में अनादिसे जन्म मरणरूपी वृक्ष होता चला आया है। जहां इम अज्ञानको नाशकर सम्यग्ज्ञानका लाभ हुआ और अपना ही आत्मा स्वभावसे सर्व द्रव्य कर्मोंसे तथा रागादि भाव कर्मोसे भिन्न शुद्ध सिद्धसमान अपनी श्रद्धामे आगया बस संसारका बीज नष्ट हुआ। समाधिशतक में श्री पूज्यपादस्वामीने कहा है- ।
देहान्तरगतेर्बीज देहेऽस्मिन्नात्मभावना ।
बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥
भावार्थ - इस शरीर में आत्माकी भावना अन्य शरीर धारनेका बीज है, और आत्माके शुद्ध स्वरूपमें ही आत्माकी भावना करनी देहरहित होने का बीज है ।
स्वामी समन्तभद्र स्वयंभू स्तोत्रमें कहते हैं
अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषङ्गवान्मोहमयश्विर हृदि ।
}
तो बितरसत्वयचौ प्रसीदता त्वया ततो भूर्भगवाननन्तजित् ॥ ६६ ॥
भावार्थ - अनन्त दोपोके निवासका स्थान है शरीर जिसका ऐसा मोहमई पिशाच अनादिकालसे हृदयमे अंगीकार होरहा था । हे भगवन् ! आपने उसको अपने आत्मतत्त्वकी रुचिकी प्रसन्नता से
जीत लिया इसीलिये आपको अनन्तजित या अनन्तनाथ कहते हैं । तात्पर्य यह है कि इस आत्माको अपनी ही परिणतिका
कर्ता तथा भोक्ता निश्चयसे निश्रय करना चाहिये ॥ ८० ॥