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________________ ११० ] श्रीप्रवचनसारटीका | भगवानकी स्तुति करते हुए कहा है Bhonsleilly तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात्तथा प्रतोतेस्तव तत्कथंचित् । नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च विधेर्निषेधस्य च शून्यदोषात् ||४२ ॥ भावार्थ - जीवादि पदार्थ अपने स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा अस्ति रूप हैं तथा पर स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा नास्ति रूप हैं। आपके मतमें जो जीवादिका स्वरूप है वह एक समय में प्रमाण दृष्टिसे अस्ति नास्ति रूप प्रतिभासता है । भिन्न २ अपेक्षासे वस्तु तत् तथा अतत् स्वभावसिद्ध है । अस्ति तथा नास्ति धर्मकी सर्वथा भिन्नता नहीं है। यदि सर्वथा भिन्न माने जावे तौ दोनोंकी शून्यता आजावेगी क्योंकि अस्ति विना नास्ति नहीं । नास्ति विना अस्ति नहीं होते | और यदि दोनोकी सब तरहसे अभिन्नता या एकता मानी जायगी तव भी दोनोंका अभाव हो जायगा । एक द्रव्यमें रहते हुए अपेक्षाकी भी एकता माननेसे कुछ न रहेगा ।' इसलिये अस्तिधर्म नास्तिधर्मसे किसी अपेक्षा भेद रूप व किसी अपेक्षा अभेद रूप है । इस स्याद्वाद कथनसे ही अपना आत्मा सर्व अनात्म द्रव्योसे व सर्व रागादि नैमित्तिक भावोसे जुदा भासता है और उस आत्माका पृथक् अनुभव होता है । स्याद्वादका प्रयोजन यथार्थ वस्तु स्वभावका ज्ञान प्राप्त करना व अन्यको प्राप्त -कराना है । . तात्पर्य यह है कि स्याद्वादके द्वारा यथार्थ स्वरूप समझकर हमें निज हित में प्रवर्तना योग्य है । इस तरह सप्तभंगीके व्याख्यानकी गाथाके द्वारा आठवां स्थल पूर्ण हुआ । इस तरह जैसा पहले कह चुके है पहले एक
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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