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द्वितीय खंड।
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द्रव्यमें दो स्वभाव है पन्तु एक साथ नहीं कहे जासक्ते क्योंकि वचनोंमे ऐसी शक्ति नहीं है. इसलिये चौथा भंग अवक्तव्य हो जाता है। इसी तरह अपनी २ भिन्न अपेक्षाके कारण अवक्तव्यके आगेके शेष तीन भग बन जायगे अर्थात् स्वरूपसे अस्ति है। तथापि दोनों अस्तिनास्तिको एक समय रखते हुए अवक्तव्य है। यह अस्ति च अवक्तव्य पाचवा भंग हुआ-पर स्वरूपसे नास्ति है तथापि दोनों अस्ति नास्तिको एक समय रखते हुए अवक्तव्य है यह नास्ति च अवक्तव्य नामका छठा भंग है । क्रमसे कहते हुए स्वरूपसे अस्ति तथा पर स्वरूपसे नास्ति है तथापि एक समय दोनोंको रखते हुए अवक्तव्य है यह अस्ति नास्ति च अवक्तव्य नामका सातवां भंग हुआ। आगे कहते हैं
विधेय प्रतिध्यात्मा विशेष्यः शब्दगोचरः। साध्यधर्मों यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्षया ॥ १९ ॥
भावार्थ-जो कोई विशेष्य पदार्थ शब्दसे कहनेमे आवेगा वह साध्य असाध्य स्वरूप अवश्य होगा । जैसे साध्यका स्वभाव अपने लिये तो हेतु है परन्तु परके लिये अहेतु है । जहा अग्निपना साधन करेंगे वहां धूम हेतु है यही हेतु जलपना साधनेमें अहेतु है-हेतु नहीं है। किसी अपेक्षासे धूम हेतु है, किसी अन्य अपेक्षा धूम अहेतु है। इसी तरह जीव अपने स्वरूपसे साध्य है, परन्तु अनीवके स्वरूपसे असाध्य है अर्थात् जीवमे जीवकी अपेक्षा अस्तिपना तथा अजीवकी अपेक्षा नास्तिपना है । ऐसा यदि न हो तथा दोनों एक स्वरूप हो तब न जीव शब्द कह सके न अजीव शब्द कह सक्ते । स्वयंभूस्तोत्रमे भी खामीने श्री पुष्पदन्त,