________________
३६६]
श्रीप्रवचनसारटीका ।
www
प्राप्त करनेवाले योगीका मन इंद्रियोके विषयोमें नहीं रमन करता है-वह मन सर्व आशासे रहित हो आत्मासे एक होनाता है अथवा आत्म ध्यानके शस्त्रसे मर जाता है । जबतक मन नहीं भरता है तबतक सर्व मोहका क्षय नहीं होता । मनके मरनेपर मोहका क्षय होनाता है व मोहके क्षय होनेके पीछे शेष तीन घातिया कर्म भी क्षय होजाते हैं । जैसे रानाके मरनेपर उसकी सन सेना अपने प्रभावसे रहित हो स्वयं भाग जाती है तैसे मोह रानाके नाश होनेपर सर्व घातियां कर्म गल जाते हैं। चारघातिया कर्मोके नाश होनेपर निर्मल केवलज्ञान पैदा हो जाता है जो उरुष्ठ है, तीनकालको जाननेवाला है व लोक और अलोकका प्रकाशक है। इससे यही निश्चय करना चाहिये कि आत्मध्यानसे ही कर्मोका क्षय होता है और आत्मा शुद्ध होता है।
इस तरह आत्माके अनुभवसे दर्शनमोहका क्षय होता है ऐसा कहते हुए पहली गाथा, दर्शनमोहके क्षयसे चारित्रमोहका क्षय होता है ऐसा कहते हुए दूसरी, इन दोनोके क्षयसे मोक्ष होता है ऐसा कहते हुए तीसरी, इस तरह आत्माका लाभ होना फल होता है ऐसा कहते हुए दूसरे स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई।
उत्थ निका-आगे शिप्य पूर्वपक्ष करके यह आक्षेप करता है कि शुद्धात्मतत्त्वको प्राप्त करके सकलज्ञानी परमात्मा किस वस्तुको ध्यान है ? णिहद्घणघादिकम्मो पञ्चक्ख सव्वभावतच्चण्हू ।
यन्तगदो समणो झादि किम्म अलंदेहो ॥ १०६॥ . निहतघनघातिकर्मा प्रत्यक्षं सर्वभावतत्त्वज्ञः । यान्तगतः श्रमणो ध्यायति किमर्थमसदेहः।। १०९ ॥