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द्वितीय खंड।
[३६५ बढ़ानेवाला तथा ससार शरीरभोगोसे वैराग्य उत्पन्न करनेवाला कथन है उसको ध्यानान्वय सूचना कहते हैं।
__ प्रयोजन यह है कि इन चारो ही ध्यानके भेदोमें जिसमें उपयोग लगे वर्तनकरके वीतरागमई साम्यभावमें ठहरनेका यत्न करना चाहिये क्योकि आत्मध्यानसे ही आत्मा शुद्ध होगा । अन्य कोई उपाय नही है . जेसा श्री तत्वसारमें श्रीदेवसेनमहारान कहते है
सयलवियप्पे थरके उप्पना कोचि तासओ भावो । जो अपणो सहायो मोक्रसस्म य कारण सो हु ॥ ६१ ॥ असहावे याको जोई न मुणेइ आगए विसए । जाणियणिय अप्प णं च्छियत वेव सुविमुद्र ॥ ६२ ॥ ण रमइ विसयेमु मणो जोइस्म दु लदसुद्धनचस्व । एकोहबह गिरासो मरइ पुणो आणसत्येण ।। ६३ ।। ण मरद तावत्य मणो जाम ण मोहो खयगओ सन्यो । सोयति संणभाई सागि य घाइकम्माणि || ६४ ॥
हए राए सेण णामइ सयमेव गलियमाहप्पं । तर नियमोहगए गति गिरसेसचाईणि || ६५ ॥ घाइ चहक. प. उप्पजद विमलकेवल गाणं । रोयालेयपयाम कालत्तयजाणगं परम ॥ ६६ ।
भावाथ-सर्व मनके सकल्प विकल्पोके रुक नानेपर कोई एकअविनाशी भाव पैदा होता है जो आत्माका स्वभाव है व जो निश्चयसे मोक्षका कारण है । आत्मस्वभावमे रिथर होता हुआ योगी आएहुए दंद्रियोके विपयोका अनुभव नहीं करता है किन्तु वह निज आत्माको अत्यन्त शुद्ध देखता जानता रहता है । शुद्धतत्वको