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द्वितीय खंड ।
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लीन अनेक मुनि हुए जो तद्भव मोक्षगामी न थे तथा सामान्य "केवली जिन हुए व तीर्थकर परमदेव हुए ये सब सिद्ध परमात्मा "हुए हैं । उन सबको तथा उस विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण 'निश्चय रत्नत्रयमई मोक्षके मार्गको हमारा अनन्तज्ञानादि सिद्ध
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'गुणों का स्मरणरूप भाव नमस्कार होहु । यहां अचरम शरीरी मुनियोंको सिद्ध मानकर इस लिये नमस्कार किया है कि उन्होंने भी रत्नत्रयकी सिद्धि की है। जैसा कहा है
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" तव सिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्ध चरित्रसिद्ध य । णाणम्मि दंसणम्मिय सिद्धे सिरसा णमस्सा मि” अर्थात जिन्होंने तपमें सिद्धि पाई है, नयोंके स्वरूप ज्ञानमें सिद्धि पाई है, संयम में सिद्धि की है, चारित्र में सिद्धि पाई है तथा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमें सिद्धि पाई है उन सबको मैं सिर झुकाकर नमस्कार करता हूं । इससे 'निश्रेय किया जाता है कि यही मोक्षका मार्ग है अन्य कोई नहीं है। भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने यह स्पष्ट कह दिया है कि मोक्षका कारण निज शुद्धात्माका सर्व परद्रव्योसे भिन्न श्रद्धान ज्ञान तथा चारित्ररूप तल्लीनता है - अर्थात् निश्चय रत्नत्रयमई निर्विकल्प समधि है या स्वानुभव है या कारण समयसार है या स्वसमय रूप प्रवृत्ति है । इसी मोक्षमार्गको सेवन करके महामुनि हुए हैं जो यद्यपि तद्भव मोक्ष न प्राप्त हुए किंतु कुछ भवोंमें प्राप्त करेंगे । तथा इसी मार्गपर चलकर अनेक मुनि सामान्य - केवली हुए, अनेक साधु तीर्थंकर केवली हुए और ये सब जीव सिद्ध परमात्मा होगए, क्योकि मैं कुन्दकुंद मुनि भी इसी शुद्धात्माकी अवस्थाको प्राप्त करना चाहता हूं इसलिये मैं शुद्ध आत्मा