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________________ IRF द्वितीय खंड । ३७३ 13,3" लीन अनेक मुनि हुए जो तद्भव मोक्षगामी न थे तथा सामान्य "केवली जिन हुए व तीर्थकर परमदेव हुए ये सब सिद्ध परमात्मा "हुए हैं । उन सबको तथा उस विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण 'निश्चय रत्नत्रयमई मोक्षके मार्गको हमारा अनन्तज्ञानादि सिद्ध 112 1 'गुणों का स्मरणरूप भाव नमस्कार होहु । यहां अचरम शरीरी मुनियोंको सिद्ध मानकर इस लिये नमस्कार किया है कि उन्होंने भी रत्नत्रयकी सिद्धि की है। जैसा कहा है 1 " तव सिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्ध चरित्रसिद्ध य । णाणम्मि दंसणम्मिय सिद्धे सिरसा णमस्सा मि” अर्थात जिन्होंने तपमें सिद्धि पाई है, नयोंके स्वरूप ज्ञानमें सिद्धि पाई है, संयम में सिद्धि की है, चारित्र में सिद्धि पाई है तथा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमें सिद्धि पाई है उन सबको मैं सिर झुकाकर नमस्कार करता हूं । इससे 'निश्रेय किया जाता है कि यही मोक्षका मार्ग है अन्य कोई नहीं है। भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने यह स्पष्ट कह दिया है कि मोक्षका कारण निज शुद्धात्माका सर्व परद्रव्योसे भिन्न श्रद्धान ज्ञान तथा चारित्ररूप तल्लीनता है - अर्थात् निश्चय रत्नत्रयमई निर्विकल्प समधि है या स्वानुभव है या कारण समयसार है या स्वसमय रूप प्रवृत्ति है । इसी मोक्षमार्गको सेवन करके महामुनि हुए हैं जो यद्यपि तद्भव मोक्ष न प्राप्त हुए किंतु कुछ भवोंमें प्राप्त करेंगे । तथा इसी मार्गपर चलकर अनेक मुनि सामान्य - केवली हुए, अनेक साधु तीर्थंकर केवली हुए और ये सब जीव सिद्ध परमात्मा होगए, क्योकि मैं कुन्दकुंद मुनि भी इसी शुद्धात्माकी अवस्थाको प्राप्त करना चाहता हूं इसलिये मैं शुद्ध आत्मा
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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