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३७४] श्रीप्रवचनसारटोका। Crmirmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm का ध्यानकर भाव नमस्कार करता हुआ उन सर्व सफल कार्य करनेवालोंको द्रव्य नमस्कार करता हूं। साथ ही उस अभेद रत्नत्रयकी परम रुचि रखता हुआ उसमें अपने उपयोगको जोड़ता हुआ उस मोक्षमार्गको भी भाव नमस्कार सहित द्रव्य नमस्कार करता हूं। इससे यह सिद्ध किया गया है कि हम सबको इस लोक तथा परलोकमें परम शांति व सुखको प्राप्त करनेके लिये इसी रत्नत्रयमयी निर्ममत्त्व भावकी भावना भानी चाहिये ।
श्री अमितिगति महाराजने सामायिकपाठमें कहा है:सर्वज्ञः सर्वदर्शी भवमरणजरातकशोकव्यतीतो, लब्धात्मीयस्वभावः क्षतसमलमला शश्वदात्मानपायः । दक्षैः सकोचितार्भवमृतिक्तैिर्लो यात्रानपेक्षभ्रष्टा वाधारमनीनस्थिरविशुदसुखप्राप्तये चिंतनीयः ॥ २० ॥
भावार्थ-जो चतुर पुरुष इंद्रियोके विजयी है, जन्म मरणसे भयभीत है, संसारके भ्रमणसे उदासीन हैं उनको वाधा रहित, आत्मासे उत्पन्न, स्थिर और शुद्ध निर्मल सुखकी प्राप्तिके लिये उस आत्माका सदा चिन्तवन करना चाहिये जो अविनाशी है, सर्वज्ञ है, सर्व दी है, जन्ममरण जरा रोगशोकादिसे रहित है, निजखमावमें प्राप्त है, तथा सर्व द्रव्यकर्म नौकर्म भावकर्ममलसे रहित है ॥१११
उत्थानिका-आगे प्रथम ज्ञानाधिकारकी पांचवीं गाथामें आचार्यने कहा था कि "उवसंपयामि सम्म जत्तो णिव्याणसंपत्ती" मैं साम्य भावको धारण करता हूं जिससे निर्वाणकी प्राप्ति होती
उसी अपनी पूर्व प्रतिज्ञाका निर्वाह करते हुए स्वयं ही मोक्ष'मार्गकी परिणतिको स्वीकार करते हुए कहते हैं