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________________ द्वितीय खंड [३७५ तम्हा तध जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण । परिवजामि ममत्ति उवढिदो णिम्ममत्तम्मि ॥ ११२ ॥ तस्मात्तथा शात्त्वात्मानं नायक स्वभावेन । परिवर्जयामि ममतामुपस्थितो निर्ममत्त्वे ॥ ११२ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(तम्हा) इसलिये (तघ) तिमही प्रकार (सभावेण) अपने स्वभावसे (जाणग) ज्ञायक मात्र (अप्पाणं) आत्माको (जाणित्ता) जानकर (णिम्ममत्तम्मि ) ममतारहित भावमे (उवट्टिदो) ठहरा हुआ (ममति) ममता भावको (परिवजामि) मै दूर करता हूं। विशेषार्थ-क्योंकि पहले कहे हुए प्रमाण शुद्धात्माके लाम रूप मोक्ष मार्गके द्वारा जिन, जिनेन्द्र तथा महामुनि सिद्ध हुए हैं इसलिये मै भी उसी ही प्रकारसे सर्व रागादि विभावसे रहित शुद्ध बुद्ध एक खभावके द्वारा उस केवलज्ञानादि अनतगुण स्वभावके धारी अपने ही परमात्माको जान करके सर्व परद्रव्य सम्बन्धी ममकार अहंकारसे रहित होकर निर्ममता लक्षण परम साम्यभाव नामके वीतराग चारित्रमें अथवा उस चारित्रमे परिणमन करनेवाले अपने शुद्ध आत्मस्वभावमें ठहरा हुआ सर्व चेतन अचेतन व मिश्ररूप परद्रव्य सम्बन्धी ममताको सब तरहसे छोड़ता हूं । भाव यह है कि मै केवलज्ञान तथा केवलदर्शन स्वभावरूपसे ज्ञायक एक टकोकीर्ण स्वभाव हूं ऐसा होता हुआ मेरा परद्रव्योके साथ अपने स्वामीपने आदिका कोई सम्बन्ध नहीं है। मात्र ज्ञेय ज्ञायक संबंध है, सो भी व्यवहार नयसे है । निश्चयसे यह ज्ञेय ज्ञायक सबंध भी नहीं है । इस कारणसे मैं सर्व परद्रव्योके ममत्त्वसे रहित होकर
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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