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________________ ॥३७६] श्रीप्रवचनसारटोका। परम समता लक्षण अपने शुद्धात्मामें ठहरता हूं। श्रीकुंदकुंद महाराजने "उवसंपयामि सम्म" मैं समताभावको आश्रय करता हूं इत्यादि अपनी की हुई प्रतिज्ञाका निर्वाह करते हुए स्वयं ही मोक्षमार्गकी परिणतिको स्वीकार किया है ऐसा जो गाथाकी पातनिकाके प्रारम्भमें कहा गया है उससे यह भाव प्रगट होता है कि जिन महामाओंने उस प्रतिज्ञाको लेकर सिडि पाई है उनहींके द्वारा वास्तचमें वह प्रतिज्ञा पूरी की गई है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य देवने तो मात्र ज्ञान दर्शन ऐसे दो अधिकारोंको ग्रंथमें समाप्त करते हुए उस प्रतिज्ञाको पूरा किया है। शिवकुमार महाराजने तो मात्र ग्रंथके श्रवणसे ही साम्यभावका आलम्बन किया है। क्योंकि वास्तवमें जो मोक्ष प्राप्त हुए हैं उन हीकी वह प्रतिज्ञा पूर्ण हुई हैन श्री कुन्दकुन्दाचार्य महासनकी और न शिवकुमार रानाकी क्योंकि दोनोंके चरमदेहका अभाव है। भावार्थ-श्री कुंदकुन्दाचार्य महाराज इस गाथामें अपने मोक्षमार्गके गाढ़प्रेमको प्रगट करते हुए कहते हैं कि जिस तरह पूर्व महापुरुषोंने अपने वीतराग स्वभावसे ज्ञातादृष्टा आनन्दमई अपने ही आत्माको जानकर अनुभव किया था उस ही तरह मैं भी निज आत्माके शुद्ध स्वभावको जानकर ममकार अहंकार रहित वीतराग चारित्ररूप समतामावमें ठहरकर अपने शुद्ध आत्माके सिवाय सर्व चेतन अचेतन व मिश्र पदार्थोंमें ममताको त्यागता हूं। और आत्मस्थ होता हुआ साम्यरसका पान करता हूं। पहले महाराजने जो प्रतिज्ञा की थी उसीको यहांतक व्याख्यान करते हुए निर्वाहा है। इस ग्रन्थके वक्ता श्री कुंदकुंदाचार्य हैं तथा
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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