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________________ श्रीप्रवचनसारटीका । है। जो आत्मा निगोदमें था वही आत्मा उन्नति करते २ सिद्ध अवस्थामे पहुंच जाता है। आत्म द्रव्यका न कभी उत्पाद है न कभी व्यय है। किन्तु द्रव्य अवस्थाओको पलटा करता है इसलिये जो जो पर्याय होती है उस हीका उत्पाद है और उससे पहले जो पर्याय थी उस हीका व्यय है। एक द्रव्य दो पर्यायोंमें नहीं रह सक्ता है । कोई संसारी जीव मनुष्य था मरकर देव हुआ। देव आयुका उदय होना सोही मनुष्य आयुका नाश होना है। देव अवस्था विना मनुष्य अवस्थाके नाश हुए कभी नही पैदा होसक्ती। इसी तरह जिस समय कोई साधु सर्व कर्म-बंधनोंको नाशकर मुक्त होता है और तब परमात्म पद या सिद्ध पद प्रगट होता है तब ही उससे पूर्वकी संसार पर्यायका नाश होता है। चौदहवें गुणस्थान तक इस जीवको संसारी कहेंगे क्योंकि वहांतक इसके साथ द्रव्य कर्मबन्ध भी है और शरीर भी है। इस गुणस्थानके छोड़ते ही सिद्ध पर्याय प्रगट होती है तब सिद्ध पर्यायका जन्म व संसार पर्यायका नाश कहा जाता है। इन दशाओंमें-पर्यायोंमें उत्पाद व्यय हुआ किन्तु आत्मा न कभी उपजा न नष्ट हुआ है। इसी तरह पुद्गल द्रव्यका एक स्कंध ५०. परमाणुओका था उसमेंसे ५ परमाणु निकल गए तथा ७ परमाणु मिल गए इस तरह जब वह स्कंध ५२ परमाणुओंका प्रगटा उस समयकी पर्यायका उत्पाद हुआ तब ही ५० परमाणुओंके स्कंधकी पर्यायका नाश हुआ। परमाणु सब अविनाशी हैं । परमाणु न उपजे न नष्ट हुए अथवा किसी विशेष • स्कधमे जो स्पर्श रस गंध वर्ण है वह पलटता रहता है। स्कंध बना रहता है। जैसे कोई आमका फल हरा था जब वह पीला हुआ
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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