________________
द्वितीय खंड।
[५९ है (तपि) तौभी (दव्वं) द्रव्य (णेव पणटुं ण उप्पण्णं ) न तो नाश हुआ है और न उत्पन्न हुआ है।
विशेपार्थ-वृत्तिकार आत्म द्रव्यपर घटाकर कहते हैं कि शुद्ध आत्मा द्रव्यके जब कोई अपूर्व और अनन्त ज्ञान सुख आदि गुणोकी स्थान तथा अविनाशी परमात्म खरूपकी प्राप्तिरूप स्वभाव द्रव्य पर्याय अथवा मोक्ष अवस्था प्रगट होती है तब इस मोक्ष पर्यायसे भिन्न तथा निश्चय रत्नत्रयमई निर्विकल्प समाधिरूप मोक्ष. पर्यायकी उपादान कारणरूप पूर्व पर्याय नाश होती है । तथापि वह परमात्मा द्रव्य शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा न नष्ट होता है न उत्पन्न होता है। अथवा ससारी.जीवकी अपेक्षा जब देव आदि रूप विभाव द्रव्य पर्याय उत्पन्न होती है तब ही मनुष्य आदिरूप पर्याय नष्ट होती है । तथा वह जीव द्रव्य निश्चयसे न उपना है न विनशा है । इसी तरह पुद्गल द्रव्यपर जब विचार किया जाय तो मालूम होगा कि दो अणुका स्कंध, चार अणुका स्कंध आदि स्कन्धरूप स्वजातीय विभाव द्रव्य पर्याय जब कोई उत्पन्न होती. है तब पूर्व पर्यायको नाश करके ही पैदा होती है । तो भी पुद्गल " द्रव्य निश्चयसे न उपजता है न नष्ट होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होनेके कारण द्रव्यकी पर्यायोंका. नाश और उत्पाद होने पर भी द्रव्यका नाश नहीं होता है । इस हेतुसे द्रव्यंकी पर्यायें भी द्रव्य लक्षण या स्वरूप होती है अर्थात्, द्रव्यसे जुदी नहीं हैं ऐसा अभिप्राय है।
भावार्थ- इस गाथामे आचार्यने द्रव्यके स्वरूपको और भी स्पष्ट प्रगट कर दिया है कि द्रव्य न कभी उपनता है न नष्ट होता.