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________________ द्वितीय खंड । [ ६१ तब वह हरेपनेको नाश करके ही पीला हुआ है। इस तरह अब - स्था बदलते हुए भी आमका उस क्षण न नाश हुआ न उत्पाद । इस कथनसे आचार्य ने यह दिखला दिया है कि इस जगतके सर्व ही द्रव्य उत्पाद व्यय करते हुए भी सदा बने रहते हैं । यही जगतका स्वरूप है । यह जगत इसी कारण नित्यानित्त्य है । द्रव्योंकि बने रहने के कारण नित्य जब कि पर्यायोंकि उपजने व विनशनेकी अपेक्षा अनित्य है । न यह सर्वथा अनित्य है न सर्वथा नित्य है । श्री समंतभद्राचार्यने स्वयंभू स्तोत्रमे यही बात बताई है - स्थितिजनन 'नरोधलक्षण, चरमचर च जगत्प्रतिक्षणम् । इति जिन न लगलाइनं, धचनमिद वदला वरस्य ते ॥ भावार्थ - हे मुनिसुव्रतनाथ ! आप उपदेष्टाओमे श्रेष्ठ है । आपका जो यह उपदेश है कि यह चेतन व अचेतन रूप जगत प्रत्येक क्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्य लक्षणको रखनेवाला है वह इस बातका चिह्न है कि आप सर्वज्ञ हैं। क्योकि जैसा वस्तु खरूप है वैसा आपने जाना है तथा वैसा ही उपदेश किया है । तात्पर्य यह है कि ससारकी क्षणभंगुर पर्यायोमे हमे मोही न होकर अपने आत्मद्रव्यके अविनाशी स्वभावपर ध्यान देकर उसकी शुद्धिके लिये जगतका स्वरूप समता भावसे विचारकर रागद्वेप छोड़ देना चाहिये और स्वचारित्रमे तन्मय होकर परम स्वाधीनताका लाभ करना चाहिये ॥ १२ ॥ उत्थानिका- आगे द्रव्यके उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूपको गुण . पर्यायकी मुख्यतासे बताते हैं ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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