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________________ wwwwwww श्रीप्रवचनसारटीका। परिणमदि सयं दव्यं गुणदो य गुणंतरं सदविसि । तम्हा गुणपजाया भणिया पुण दव्यमेवेत्ति ॥ १३ ॥ परिणमति स्वयं द्रव्य गुणतश्च गुणतर सदविशिष्टम् ॥ तस्माद्गुणपर्याया भणिताः पुनः द्रव्यमेवेति ॥ १३ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( सदवसिट्ठ ) अपनी सत्तासे अभिन्न (दव्यं) द्रव्य (गुणदो) एक गुणसे (गुणंतर ) अन्य गुणरूप (सयं) स्वयं-आप ही (परिणमदि) परिणमन कर जाता है । (तम्हा ) इस कारणसे (य पुण) ही तब ( गुणपज्जाया) गुणोकी पर्यायें (दव्वमेवेत्ति) द्रव्य ही हैं ऐसी ( भणिया) कही जाती हैं। विशेषार्थ-वृत्तिकार समझाते हैं कि एक जीव द्रव्य अपने चैतन्य स्वरूपसे भिन्न न होकर अपने ही उपादान कारणसे आप ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका वीज जो वीतराग स्वसंवेदन गुणरूप अवस्था उसको छोड़कर सर्व प्रकारसे निर्मल केवलज्ञान गुणकी अवस्थाको परिणमन कर जाता है इस कारणसे जो गुणकी पर्यायें होती है वे भी द्रव्य ही है, पूर्व सूत्रमे कहे प्रमाण केवल द्रव्यकी पर्यायें ही द्रव्य नहीं हैं अथवा संसारी जीव द्रव्य मति स्मृति आदि विभाव ज्ञान गुणकी अवस्थाको छोडकर श्रुतज्ञानादि विभाव ज्ञान गुणरूप अवस्थाको परिणमन कर जाता है ऐसा होकर भी जीव द्रव्य ही है । अथवा पुद्गल द्रव्य अपने पहलेके सफेद वर्ण आदि गुण पर्यायको छोड़कर लाल आदि गुण पर्यायमें परिणमन करता है ऐसा होकर भी पुद्गल द्रव्य ही है । अथवा आमका फल अपने हरे गुणको छोड़कर वर्णगुणकी पीत पर्यायमें परिणमन कर
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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