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द्वितीय खंड।
[३९ गुण ही द्रव्यसे भिन्न है।
भावार्थ-आचार्यने पूर्वमे त्रिलक्षणमई द्रव्यको बतलाया था। इस गाथामे पहला जो लक्षण सत् किया था उसके सम्बन्धमें कहा है कि वह सत् या अस्तित्व, या सत्ता द्रव्यमे सदा पाई जाती है। गुण और गुणी प्रदेशोकी अपेक्षा एक है परन्तु नाम आदि भेदसे विचारते हुए भिन्न२ झलकते है । सत्ता गुण है द्रव्य गुणी है । दोनो सदासे साथ है इसलिये जैसे द्रव्य स्वभावसे सिद्ध है और अनादि अनत है वेसे उसकी सत्ता स्वभावसे सिद्ध है और अनादि अनंत है । यद्यपि इस जगतमे अवस्थाए वनती और विगडती दिखलाई पडती है परतु जिसमे ये अवस्थाएं होती है वह द्रव्य न बनता दिखलाई पड़ता है न नष्ट होता मालूम होता है । परमाणुओंसे स्कथ बनते है, स्कधसे परमाणु बन जाते हैं । अकस्मात् कोई नहीं बनता है। मनुष्य शरीरमे जीव आता है तब मनुष्य जीव कहलाता है, वही जीव देव पर्यायमे जाता है तब देव जीव कहलाता है। वास्तवमे उस लोकमे जीव पुद्गल आदि छहो द्रव्य अनादि अनंत हैं इसीसे स्वभावसिद्ध है, किसीने बनाए नहीं है। किसीका किसीसे बनना तव ही माना जासक्ता है जब किसी समय या क्षेत्रमें पहले उसका अभाव या न होना सिद्ध हो जावे । यदि हम विचारते हुए चले जावेंगे तब किसी भी द्रव्यका कमी या कही अभाव था ऐसा सिद्ध नही होगा । जगतमें यही देखा जाता है कि पानीसे मेघ बनते है, मेघसे पानी बनता है, वृक्षसे वीज होता है बीनसे वृक्ष होता है-कभी भी विना वीजके वृक्षका होना व विना वृक्षके वीजका होना सिद्ध नही होसक्ता । मनुष्य माता पिताके