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श्रीप्रवचनसारटीका !
संयोगसे होता है यह क्रम अनादि है- कभी भी कोई मनुष्य विना माता पिता के नही हो सक्ता । जगतमे अवस्थाविशेषका उत्पाद व अवस्थाविशेषका ही व्यय होता है, मूल द्रव्य कभी न जन्मता है न नष्ट होता है । सिद्ध भगवान परमात्मा है वे भी खभावसिद्ध अनादि है । यद्यपि उनको सिद्ध अवस्था सादि है, परन्तु जिस 1 जीव द्रव्यमे यह अवस्थामई है वह अनादि है । जीव में सब ही केवलज्ञानादि गुण संदासे ही थे तथा उसके असख्यात प्रदेश सदासे ही थे। उनपर जब आवरण था तब वे अशुद्ध थे, जब आवरण चला गया तब वे शुद्ध हो गए तथा यह शुद्धता भी अपने ही उपादान कारणरूप निश्चय रत्नत्रयमई कारण समयसाररूप निर्विकल्प समाधिसे ही हुई है । द्रव्य जैसे स्वभावसिद्ध है वैसे उसका लक्षण जो स्वरूप अस्तित्त्व है वह भी स्वभावसे सिद्ध है । द्रव्यार्थिक नय या निश्चयनय गुणगुणीका भेद न करके अखंड द्रव्यको ग्रहण करती है । इस नयमे सत्ता और द्रव्य भिन्नर नही दिखते हैं - एक द्रव्य ही झलकता है। पर्यायार्थिकनय या व्यवहारनयसे जब उसके स्वरूपको समझा या समझाया जाता है तब द्रव्यमे जितने गुणोका आधार है उनका भिन्न २ नाम च स्वरूप या प्रयोजन समझाया जाता है । जैसे जो अग्निको जानता है उसके लिये अग्नि कहना ही बश है इसीसे ही वह अग्निको समझ जाता है, परन्तु जो कोई अज्ञानी अग्निको नही समझता है उसके लिये कोई ज्ञानी इस तरह समझाते हैं कि अग्नि उसे कहते है जिसमें दाहक अर्थात् जलानेका स्वभाव' हों, पाचक अर्थात् पकानेका स्वभाव हो, प्रकाशक अर्थात् उजाला देनेका स्वभाव हो इत्यादि ये तीनो ही स्वभाव अग्निमें