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श्रीप्रवचनसारटोका ।
सुन्दरसे असुन्दर व वर्णसे वर्णान्तर होजाता है - इम अवस्थाके बदलने में सर्वसाधारण कारण कालद्रव्य है । इस तरह अमूर्तीक अचेतन धर्मादि चार द्रव्योकी सत्ता जानने योग्य हैं। इस कथनको जानकर एक अपना शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है शेष सर्व हेय हैं ऐसा निश्चय करके निज स्वरूपका अनुभव करना योग्य है ।
श्री अमृतचंद्र आचार्यने तत्वार्थसार मे इन्ही द्रव्योको कहा है
धर्माधर्माविथाकाश तथा कालश्च पुद्गलाः । अजीवाः खलु पचेते निर्दिष्टा सर्वदर्शिभिः ॥ २ ॥
एते धर्मादयः पत्र जीवाश्च प्रोक्तलक्षणाः । पद्रव्याण निगद्यते द्रव्ययाथात्म्यवेदिभिः ॥ ३ ॥ भावार्थ- सर्वदर्शीने धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गलोको अजीव कहा है तथा जीव अलग है इनको मिलाकर द्रव्यके यथार्थ स्वरूपको जाननेवालोंने छः द्रव्य कहे है ॥ ३६ ॥
उत्थानिका- आगे लोक और अलोकके भेदमे आकाश पदार्थके दो भेद बताते है:
पुग्गलजीवणिवद्धो धमाधम्मत्थिकायकालड्ढो । वहृदि आयासे जो लोगो सो सवकाले दु ॥ ३७ ॥ ;
पुद्ग वन्वा धर्माधर्मात कायकालाढ्य ।
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वर्तते श्राकाशे यो लोकः त सर्वकाले तु ॥ ३७ ॥
अन्य
त सामान्यथ - (जो ) जितना क्षेत्र ( आयासे)
इस आकाशमे ( पुग्गलजीवणिबद्धो ) पुद्गल और जीवोंसे भरा
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'हुआ तथा' (धम्मावम्मत्थिकाय कालडूढो ) धर्मास्तिकाय, अधम