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________________ द्वितीय खंड। [१६३ स्तिकाय, और कालमे भराहुआ (वदि) वर्तन करता है (सो दु) वही क्षेत्र (सव्यकाले) सदा ही (लोगो) लोक है।। विशेषार्थ-पुद्गलके दो भेद हैं-अणु और स्कंध तथा जीव सब निश्चयसे अमूर्तीक अतीद्रिय ज्ञानमई तथा निर्विकार परमानन्द रूप एक सुखमई आदि लक्षणोके धारी हैं इनसे जितना आकाश भरा हुआ है व जिसमे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल द्रव्य भी व्यापक हैं इस तरह जो पांचों द्रव्योंके समूहको रखता हुआ वर्तता है वह इस अनन्तानन्त आकाशके मध्यमें रहनेवाला लोकाकाश है । वास्तवमें आकाश सहित जो इन पांच द्रयोका आधार है वह छः द्रव्यका समूहरूप लोक सदा ही है उसके बाहर अनन्तानन्त खाली जो आकाश है वह अलोकाकाश है ऐसा अभिप्राय है। भावार्थ-आचार्य इस गाथामें छः द्रव्योंके क्षेत्रको बताते हैं। सबसे बडा आकारवाला अनन्त आकाश द्रव्य है । इसके मध्य में अन्य पांच द्रव्य भरे हुए हैं । नितनेमें ये पाच द्रव्य हैं उसको लोक या जगत् कहते हैं। इसके बाहरके आकाशको अलोक कहते हैं-धर्मास्तिकाय लोकाकाशके वराबर एक अखंड द्रव्य है-अधर्मास्तिकाय भी ऐसा ही है ये दोनों लोकाकाशमे व्यापक हैं। कालद्रव्य गणनामें असंख्यात हैं । वे एक दूसरेसे कभी मिलते नहीं परंतु लोकाकाशमें इसतरह फैल है कि कोई प्रदेश ' कालद्रव्यके , विना शेष नहीं है। यदि प्रदेशरूपी गजसे माप करें तो लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश होगे इस तरह हरएक प्रदेश कालद्रव्यसे छाया हुआ है । जीव अनन्तानत हैं-सो लोकाकाशमें खचाखच भरे हैं
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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