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श्रीप्रवचनसारटीका। उनमे बहुत भाग ऐसे शरीरधारियोका है जो एक शरीरमें अनंतानंत एक साथ रह सक्ते हैं जैसे निगोद शरीरधारी जीव-सूक्ष्म एकन्द्रिय पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति जो किसी इंद्रियके गोचर नहीं हैं व जो पर्वतादिके भीतरसे भी निकल जाते है तथा निराधार हैं, इस सर्वलोकमें खचाखच भरे है तथा वादर एकेन्द्रियसे पंचेंद्री पर्यंत जीव जो आधारमें उत्पन्न होते हैं तथा यथासभव रुकते हैं व रोकते है वे भी यथासंभव यत्र तत्र पाए जाते हैं । प्रयोजन यह है कि कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है जहां संसारी जीव न हो । जीवोंसे भी अनन्तानंतगुणे पुद्गल हैं। परमाणु अविभागी पुद्गलके खडको कहते हैं । दो या अधिक परमाणुओसे बने हुए बंधरूप समुदायको स्कंध कहते हैं । इनमे बहुत भाग सूक्ष्म है वे एक दूसरेको अवकाश देते हुए रहते है इसतरह पुद्गलोंसे भी कोई आकाशका प्रदेश खाली नही है । छ. द्रव्य जहां हर जगह पाए जासके उसको लोकाकाश कहते हैं । इसके बाहर जहां केवल आकाश ही आकाश है वह अलोकाकाग है ।
श्री नेमिचंद्रसिद्धांतचक्रवर्तीने द्रव्यसंग्रहमे कहा है- । धम्माधम्मांकालो पुग्गलजीवा य सति जावदिये । आय से सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥
अर्थात्-धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव जितने आकाशमे हैं वह लोक है उसके बाहर अलोक है । ___ प्रयोजन यह है कि इस छः द्रव्यमई लोकमे निज आत्मा ही उपादेय है, अन्य सब ज्ञेय हैं । इस भावनासे ही वह साम्यभाव प्राप्त होता है जिसकी आवश्यक्ता सम्यक्चारित्रके लिये है॥३॥