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द्वितीय खंड |
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कर अनुभव करो यही अनुभव एक दिन अजीवसे दूर करके तुम्हें स्वाधीन बना देगा । पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्णनान बनता, बिगड़ता, प्रत्यक्ष झलकता है इससे इसकी सत्ताको समझनेमे कोई कठिनता नहीं है । परतु धर्मादि चार द्रव्य अमूर्तीक है-अदृश्य हैं-प्रत्यक्ष नहीं है उनकी सत्ताको कैसे माना जावे ? इसलिये आचार्य कहते है कि युक्तिसे उनकी सत्ता भी प्रगट होजायगी। इस लोकमें नीव पुद्गल दो द्रव्य हलनचलन क्रिया करते तथा ठहरते हुए मालूम पडते हैं।
इन क्रियाओंमे उपादान कारण वे स्वयं है परंतु उनकी इन क्रियाओमे कोई सर्वमाधारण तथा अविनाशी ऐसे निमित्त कारण भी चाहिये । केली भगवानने अपने ज्ञान नेत्रसे जानकर उपदेश दिया कि जो एक अमूर्तीक द्रव्य इम लोकाकाशमे सत्र अखड रूपसे व्यापक है वही धर्मद्रव्य व वैमा ही अधर्म द्रव्य है जिनका काम उदासीन रूपसे जीव व पुद्गलोकी गतिमें व स्थितिमे क्रमले सहाय करना है।
सर्व द्रव्य अवकाश पारहे है व स्थानान्तर होते हुए भी अवकाश पा लेते है इमलिये जिसके विना द्रव्य अवकाग नही पा सक्के व जिसके होने हुए पा सक्ते है वह आकाश द्रव्य है । आकाश अनंत और सर्वसे बड़ा है उसीके मध्यभागमे नहातक हर जगह जीव पुद्गलानि च द्रव्य पाए जाते है उम भागको बोकाकाश शेषको अलो ।। कहते है । द्रव्योमे हल परिणमन भिया देव रहे है । जैसे रेरिणमन शातिमे छूटकर क्रोधमई कोगए व "हमारा कोई मा कुछ ज्ञानके होनेसे नष्ट होता है ना पुद्गल
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