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१६०] श्रीप्रवचनसारटोका । चेतना शुद्ध जीवमें शुद्ध है और अशुद्ध जीवमें अशुद्ध है। अथवा निश्चय नयसे हरएक जीवमे शुद्ध है व्यवहार 'नयसे अशुद्ध है। वही चेतना निश्चय नयसे केवलज्ञान और केवलदर्शनमई शुद्ध उपयोगसे वर्तन करती हुई खको और सर्व लोकालोक सम्बन्धी तीन काल वर्ती द्रव्यको उनके गुण और पर्यायोके साथ जानती है तथा व्यवहार नयसे मतिज्ञान आदि रूप व चक्षु अचक्षु आदि दर्शन रूप परिणमती हुई द्रव्योको परोक्ष रूपसे उनकी कुछ पर्यायोके साथ जानती है। इसी उपयोगसे जीव द्रव्यकी सत्ता पृथक् झलकती है। जिसमे न चेतना है न ज्ञान दर्शन उपयोगके शुद्ध या अशुद्ध व्यापार है वह अजीव है-उस अजीवके पांच भेद हैं अर्थात वे अजीव द्रव्य पांच प्रकारके भिन्न २ इस लोकमें पाए जाते है-वर्ण गध रस स्पर्शवान पुद्गल है, गति सहकारी धर्म द्रव्य है, स्थिति सहकारी अधर्म द्रव्य है, अवकाश सहकारी आकाश द्रव्य है, परिणमन सहकारी काल द्रव्य है । ये यांचों ही चेतना तथा उपयोगसे शून्य हैं इसलिये अचेतन और अनुपयोगमई अनीव हैं।
इस जगतमे अपना आत्मा पुद्गलके साथ ऐसा मिल रहा है कि उसकी पृथक् सत्ता अज्ञानी जीवको नही जाननेमें आती है इसलिये वह भ्रमसे अपनी आत्माको क्रोधी, मानी, लोभी, मोही • आदि व मनुष्य शरीर रूप ही मान लेता है उसको जुदा अपना जीव नही मालूम होता है । इसलिये आचार्यने बताया है कि तुम जीव हो, तुम्हारा स्वभाव निश्चयसे शुद्धचेतनामय तथा परम शुद्ध केवलज्ञान व केवलदर्शन उपयोगमई है-तुम अपनेको ऐसा जान