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द्वितीय खंड |
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जीव द्रव्य स्वयं सिद्ध बाहरी और अन्तरङ्ग कारणकी अपेक्षा विना अंतरङ्ग व बाहरमें प्रकाशमान नित्य रूप निश्चयसे परम शुद्ध चेतनासे तथा व्यवहार में अशुद्ध चेतनासे युक्त होनेके कारण चेतन स्वरूप है तथा निश्चयनयसे अखंड व एक रूप प्रकाशमान व सर्व तरहसे शुद्ध केवलज्ञान तथा केवल दर्शन लक्षणधारी पदाथोके जानने देखनेके व्यापार गुणवाले शुद्धोपयोगसे तथा व्यवहारनयसे मतिज्ञान आदि अशुद्धोपयोगसे जो वर्तन करता है इससे उपयोगमई है । तथा पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह पांच द्रव्य पूर्वमें कही हुई चेतनासे तथा उपयोगसे भिन्न अजीव हैं, अचेतन है, ऐसा अर्थ है ।
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भावार्थ- पहले आचार्यने संग्रहनयसे सामान्य द्रव्यका व्याख्यान किया। अब यहा व्यवहारयसे विशेष भेद द्रव्यका दिखाते हैं । जगतमें यदि प्रत्यक्ष देखा जावे तो जीवत्व और अनीवत्त्व झलक जाते हैं । जहा चेतना है- देखने जाननेका काम हो रहा है वह जीवत्व है । जहा यह नही है वह अजीवत्त्व है। एक सजीव • प्राणीमें इंद्रियों के व्यापारसे जानन क्रिया होरही है वही जत्र जीव रहित होकर मात्र शरीरको ही छोड़ देता है तब उस मृतक शरीरमें सब कुछ रचना बनी रहने पर भी जानन क्रिया इन्द्रियो के द्वारा नहीं होती है इसीसे सिद्ध है कि जानन क्रियाका करनेवाला जीव है और जिसमे जानन क्रिया नहीं वह यह शरीर है जो / पुद्गलसे, रचा है | प्रत्यक्षमे हरएक बुद्धिवान जीव अजीवको देख सक्ता है इस लिये आचार्यने प्रथम द्रव्यको दो भेद किये हैं- जीव और अज्ञीव । इस जीवमे निश्चय प्राण चेतना है वह इसमें सदा रहती है- वही