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द्वितीय खंड।
अभिन्न गुण है । जीवमें उत्पादादि तीन रूप परिणमन है सो ही संवगुण है जैसा कि कहा है "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" । ऐसा होने पर यह सिद्ध हुआ कि सत्ता ही द्रव्यका गुण है । इस तरह सत्ता गुणका व्याख्यान किया गया । परमात्मा द्रव्य अभेद नयसे अपने उत्पाद व्यय धौव्यरूप स्वभावमे तिष्ठा हुआ सत् है ऐसा श्री जिनन्द्रका उपदेश है। “सदवद्विंदं सहावे दव्वंदव्वस्स जो हु परिणामो" इत्यादि आठवी गाथामें जो कहा था वही यहां कहा गया । मात्र गुणका कथन अधिक किया गया यह तात्पर्य है । जैसा जीव द्रव्यमें गुण और गुणीका व्याख्यान किया गया वैसा सर्व द्रव्यमे जानना चाहिये।
भावार्थ-इम गाथामें आचार्यने अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है कि द्रव्य गुणी है सत्ता गुण है, दोनोकी 'एकता है-सत्ताविना द्रव्य नहीं और द्रव्य विना सत्ता नहीं होती है-सत्ता गुण द्रव्यमें प्रधान है, द्रव्य सत्तामें सदा रहता है। क्योकि हरएक द्रव्यमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य पाए जाते हैं इसलिये हरएक द्रव्य सत् है। द्रव्यमें अर्थ क्रिया होना तब ही संभव है जब द्रव्य परिणमन करे अर्थात् पूर्व पर्यायको छोड़कर उत्तर पर्यायको प्राप्त हो तो भी श्रौव्य रहे । मिट्टी अपने ढेलेपनकी हालतको छोडकर ही घडेकी अवस्थाको पदा करती है तो भी आप बनी रहती है । द्रव्यमें इन तीन प्रकार परिणामको होना ही द्रव्यके अस्तित्वका ज्ञान कराता है, क्योंकि हरएक द्रव्य सदा ही उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप रहता है इसलिये वह सदा ही सतरूप है। " ऐसा स्वरूप द्रव्यंका माननेसे ही संसार अवस्थाका नाश होकर सिद्ध पर्यायका उत्पन्न होना तथा आत्माका दोनों अवस्था में नित्य