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द्वितीय खंड |
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गए हैं। इस कारण (ते) वे जीव (सकम्माणि परिणममाणा ) अपने र कम उदयमें परिणमन करते हुए ( लडसहावा ण हि ) अपने स्वभावको निश्वयसे नहीं प्राप्त होते हैं।
दिशेपार्थ-नर, नारक, तिर्यश्च, देव ये चारों गति जीव अपने अपने नर नारकादि गति शरीर आदि रूप नाम कर्मके उदयसे उन पर्यायो में उत्पन्न होते हैं, परन्तु वे अपने२ उदय प्राप्त कर्मेकेि अनुसार सुख तथा दुःखको भोगते हुए अपने चिदानंदमई एक शुद्ध आत्म स्वभावको नही पाते हुए रहते है । जैसे माणिकका रत्न सुवर्णके ककणमे जड़ा हुआ अपने माणिक्यपनेके स्वभावको पूर्णपने नहीं प्रगट करता हुआ रहता है उस समय मुख्यता कंकणकी है, माणिक्य रत्नकी नहीं है, उसी तरह इन नर नारकादि पर्यायो जीवके स्वभावकी मात्र अप्रगटता है । जीवका अभाव नहीं होजाता है । अथवा यह भाव लेना चाहिये कि जैसे जलका प्रवाह वृक्षोंके सीचनेमे परिणमन करता हुआ चदन व नीम आदि वनके वृक्षोंमे जाकर उन रूप मीठा, कडुवा, सुगंधित, दुर्गंधित होता हुआ अपने - जलके कोमल, शीतल, निर्मल स्वभावको नहीं रखता है, इसी तरह यह जीव भी वृक्षोके स्थानमे कर्मो के उदय के अनुसार परिणमन करता हुआ - परमानन्दरूप एक लक्षणमई सुखामृतका स्वाद तथा निर्मलता आदि अपने निज गुणोंको नही प्राप्त करता है ।
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भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने यह बताया है कि कर्मेकि ' उदयके कारणसे जीवका अभाव नहीं होता न उसके भीतर पाए 'जानेवाले गुणों का अभाव होता है । कर्मके उदयके असरसे वे गुण प्रगट नही होते । ये संसारी जीव नामकर्मके उदयसे ही एक