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श्रीप्रवचनसारटोका। शरीरमें आकर अपने साथ बंधे हुए आठ प्रकारके फकि उदयके' अनुसार कर्मोका फल सुख दुःख भोगते हैं। उस दशामे जो मिथ्यादृष्टी अज्ञानी है उनको अपने स्वभावका शृद्धान तक नही होता है, परन्तु जो योग्य कारणोंको पाकर सम्यग्दृष्टी ज्ञानी हो जाते है उनको अपने स्वभावका लाभ हो जाता है । वे शृद्धावान व ज्ञानवान होकर अपने आत्मानन्दका अनुभव भी करते हैं तथा' चारित्रको बढ़ाते हुए वे चार घातिया कोको नाशकर केवलज्ञानी अहंत परमात्मा हो जाते हैं-वहां उनको साक्षात् आत्माका लाभ हो जाता है, क्योकि इस अनन्तानन्त संसारी जीवरागिमे सम्यग्हष्टी बहुत थोडे होते हैं इससे बहुतकी अपेक्षा लेकर आचार्यने कहा है कि चार गतिके जीव कोक उदयमें तन्मय होते हुए तथा कभी अपनेको सुखी व कभी दुःखी मानते हुए आकुलित रहते हैं-तब वे अपने आत्माके शुद्ध खभावको न पाते हुए संसार भ्रमणके कारण-बीज रूप रागद्वेप मोह भावोका अन्त नही कर पाते हैं। ऐसी दशामे यद्यपि अनादिकालसे जीव मिथ्यादृष्टी व अज्ञानी हैं तथापि जीवके स्वाभाविक गुणोका अभाव जीपकी सत्तासे नहीं होजाता है। सर्व ही ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि गुण आत्मामे ही रहते हैं परंतु उनके ऊपर ज्ञानावरणीय आदेि घातिया कोका परदा ऐसा पड़ जाता है कि जिसके कारण इन गुणोका औपाधिक या हीन शक्तिरूप प्रगटपना रहता है। कर्मोमे यह शनि नहीं है कि जीवके गुणोंका सर्वथा नाश करके उसको गुण रहित अवस्तु करदें। जैसे एक अच्छा भला आदमी भंगको पीकर कुछ कालके लिये मदोन्मत्त होजाता है परतु जब भंगका नशा उतर जाता है तब्ब